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साहिब मोरी के अग्निकांडों से कब लोगे सबक

अग्निकांडों को रोकने तथा इन घटनाओं में जनहानि, धन हानि और पशु हानि पर रोक लगाने के लिए आज तक कोई इन गांवों कोई इंतजाम तक नहीं किए हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Fri, 16 Feb 2018 09:52 PM (IST)Updated: Sat, 17 Feb 2018 04:00 AM (IST)
साहिब मोरी के अग्निकांडों से कब लोगे सबक
साहिब मोरी के अग्निकांडों से कब लोगे सबक

उत्तरकाशी, [जेएनएन]: मोरी ब्लॉक अग्निकांडों का द्वार बन चुका है। इन अग्निकांडों को रोकने तथा इन घटनाओं में जनहानि, धन हानि और पशु हानि पर रोक लगाने के लिए आज तक कोई इन गांवों कोई इंतजाम तक नहीं किए हैं। यहां तक कि इस तरह की आपदा से बचने के लिए ग्रामीणों को जागरूक तक नहीं किया गया।

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मोरी ब्लॉक में पिछले 10 सालों में 269 भवन आग से जलकर खाक हुए। वर्ष 2010 में मोरी के सिदरी गांव में हुआ अग्निकांड सबसे भयानक था। इस गांव में 26 भवन के साथ दो ग्रामीण और 20 से अधिक मवेशी जलकर राख हुए। इस गांव के परिवारों को घटना के पांच साल बाद घर बनाने के लिए 45-45 हजार रुपये की धनराशि मिली। अभी तक भी इस गांव के प्रभावित परिवार सही ढंग से विस्थापित नहीं हो पाए हैं। जिंदा जले बेटे व पोती को खोने के सदमे से वृद्ध पिता कौंर सिंह, मां जुमली देवी व पत्नी त्रेपनी देवी आज तक सदमे से उबर नहीं सके हैं। इस तरह का दंश झेल रहा सिदरी अकेला गांव नहीं है। मोरी ब्लॉक के 20 से अधिक गांवों में आग की बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। इन गांवों के ग्रामीणों की बदकिस्मती ये है कि ये गांव सड़क से भी नहीं जुड़ पाए हैं, जिससे कोई आग की घटना होने पर यहां अग्निशमन की टीम समय पर राहत बचाव कर सकती।

इन ग्रामीणों के प्रति तंत्र की बेरूखी यही तक सीमित नहीं है, प्रशासन ने इस तरह के अग्निकांडों को रोकने के लिए एक बार भी किसी गांवों में जाकर ग्रामीणों को जागरूक नहीं किया है। ओसला गांव के पूर्व प्रधान ठाकुर सिंह कहते हैं कि मोरी में आग से गांव के गांव जल रहे हैं। आज तक एक जागरुकता कार्यक्रम तथा गांव में आग को बुझाने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए हैं। वहीं जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी देवेंद्र पटवाल कहते हैं आपदा प्रबंधन की टीम ने मोरी के जखोल संकरी आदि स्कूल में जागरुकता कार्यक्रम किए हैं।

मजबूरी है लकड़ी से मकान बनाने की 

जिले के सीमांत क्षेत्रों में अधिकांश भवन लकड़ी के बने हुए हैं। सबसे अधिक लकड़ी के भवन उन्हीं गांवों में हैं जो आज भी सड़क से दूर हैं। जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी देवेन्द्र पटवाल कहते हैं कि सीमांत क्षेत्र में लकड़ी के भवन बनने के दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि सीमांत क्षेत्रों में बर्फबारी बहुत अधिक होती है तथा अधिकांश मौसम ठंडा रहता है। ठंड से बचने के लिए ग्रामीण अपने घरों का निर्माण पूरी तरह से लकड़ी से करते हैं। दूसरा कारण यह भी है कि ये गांव सड़क से कई किलोमीटर की दूरी पर हैं। इसलिए भवन निर्माण की सामग्री गांव तक ले जाना इन के लिए मुनासिब नहीं रहा होगा। 

सोचने तक का नहीं मिला समय 

सावणी गांव के नेगी सिंह बताते हैं कि आधी रात करीब एक बजे एक घर से आग फैली। कुछ ही पलों में आग बेकाबू हो गई, एक घंटे के अंतराल में आग पूरे गांव में फैली। ग्रामीणों को कुछ भी सोचने तक का मौका नहीं मिला। कुछ बुझाने की कोशिश की। आग की लपटों की आंच इतने तेज थी कि पास जाने की हिम्मत तक नहीं हो पा रही थी। 

कैसे पहुंच पाती अग्निशमन की टीम 

यमुना घाटी में बडकोट के पास अग्निशमन केन्द्र स्थापित है। इस केन्द्र से सावणी गांव की दूरी 115 किलोमीटर है। उसमें भी 7 किलोमीटर की पैदल शामिल है। ऐसे में अग्निशमन विभाग की टीम कैसे गांव तक आग को बुझाने के लिए पहुंच पाती। सावणी गांव पहुंचने में ही पहली राहत बचाव टीम को घटना स्थल पर पहुंचने में साढ़े छह घंटे का समय लगा। जबकि यह टीम मोरी तहसील मुख्यालय से गई थी।

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