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गढ़वाल में ही गुम हो गया गढ़वाली भाषा का चितक

जागरण संवाददाता कोटद्वार गढ़वाली में कुछ ठीक-ठाक लिखो भी तो छापने व उसे बेचने की सिरद

By JagranEdited By: Published: Fri, 19 Apr 2019 03:00 AM (IST)Updated: Fri, 19 Apr 2019 06:52 AM (IST)
गढ़वाल में ही गुम हो गया गढ़वाली भाषा का चितक
गढ़वाल में ही गुम हो गया गढ़वाली भाषा का चितक

जागरण संवाददाता, कोटद्वार: 'गढ़वाली में कुछ ठीक-ठाक लिखो भी तो छापने व उसे बेचने की सिरदर्दी है। खुद खर्च करो भी तो ऊसर जमीन में बीच बोने वाला हिसाब है। गढ़वाल में छापने-बेचने वाले तो सोलह जेठ-पंद्रह देवर की तर्ज पर किताब छापेंगे। ठीक भी है, लाला को तो बेचने के लिए चटपटी चाट ही चाहिए, जो धड़ाधड़ बिक सके। गढ़वाली साहित्य तो आंवले की तरह है, उसे कौन खाएगा और कौन खरीदेगा।' गढ़वाली भाषा साहित्य की दयनीय दशा दर्शाती यह पंक्तियां उस लेखक की हैं, जिसका गढ़वाली साहित्य में योगदान तो अहम रहा, लेकिन उनका साहित्य कभी पाठकों के समक्ष नहीं आ पाया।

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जी हां! बात हो रही है प्रसिद्ध गढ़वाली साहित्यकार भगवती प्रसाद जोशी 'हिमवंतवासी' की, जिन्होंने गढ़वाली साहित्य को 'एक ढांगा की आत्मकथा' व 'सीता बणवास' जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें दीं। उनका कहना था कि 'गढ़वाल में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। हर दिशा और हर विधा पर काम भी हो रहा है, पर देखने में आता है कि कुछ करने वालों पर नुक्ताचीनी करने की हमारी पुरानी आदत छूटी नहीं।' हिमवंतवासी के ही शब्दों में, गढ़वाल चाहता तो गढ़वाली भाषा की दशा एवं दिशा कुछ और ही होती, लेकिन एक-दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति ही गढ़वाली भाषा की उन्नति में रोड़ा बनी।

साहित्य की बात करें तो उनकी पुस्तक 'एक ढांगा की आत्मकथा' सात कहानियों का संग्रह है, जिसमें 'हेड मास्टर हिरदैराम', 'भूत कू चुफ्फा हाथ' 'कुकुट्टध्वज', 'एक ढांगा की आत्मकथा', 'तीन त्रिगट', 'शिब्बा बोडी अर गूंगा', 'नौन्याल' और 'हाय रे मनीऑर्डर' जैसी कहानियां शामिल हैं। गढ़वाली साहित्य की समृद्धि एवं संवेदनशीलता को दर्शाता यह कहानी संग्रह जहां पहाड़ी जीवन की विकटता को दर्शाता है, वहीं इन कहानियों के माध्यम से दिए गए संदेश आज भी प्रासंगिक हैं।

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भगवती प्रसाद जोशी : एक परिचय

पौड़ी जिले के ग्राम जोश्याणा (पैडुलस्यूं) में वर्ष 1927 में जन्मे भगवती प्रसाद जोशी सरकारी नौकरी में होने के बावजूद ताउम्र गढ़वाली साहित्य की समृद्धि में जुटे रहे। महज 13 वर्ष की उम्र में उनकी लिखी कहानी 'कुणाल' को जहां प्रसिद्ध बाल पत्रिका 'बालसखा' में जगह मिली, वहीं 1944-45 में उन्हें कहानी 'घाना डांडियूं का सच..' के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार मिला। इस कहानी की प्रकाशन 'सरस्वती' पत्रिका में हुआ। इसके बाद देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी व लेख छपते रहे। जोशी ने गढ़वाली भाषा में कहानी-संग्रह 'एक ढांगा की आत्मकथा' और खंड काव्य 'सीता बणवास' लिखे, जिनका प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। 20 अप्रैल 1988 को उनका हृदयगति रुकने से असामयिक निधन हो गया था।


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