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Uttarayani Fair : उत्तरायणी मेले में पहली बार आजादी के आंदोलन में कूदी थीं महिलाएं, अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम...लिखा था गीत

पहाड़ पर महिलाएं बहुत पहले ही जागरूक हो चुकी थीं। उत्तरायणी का ही संकल्प था कि पहली बार यहां की महिलाओं ने अपनी देहरी लांघकर आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी करना शुरू किया। कुंती देवी बिसनी साह जैसी महिलाएं आंदालनों का नेतृत्व करने लगी।

By Prashant MishraEdited By: Published: Thu, 14 Jan 2021 08:53 AM (IST)Updated: Thu, 14 Jan 2021 09:08 AM (IST)
Uttarayani Fair :  उत्तरायणी मेले में पहली बार आजादी के आंदोलन में कूदी थीं महिलाएं, अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम...लिखा था गीत
बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ से चेतना के स्वर उठते रहे हैं।

गणेश पांडे, हल्द्वानी : बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में 14 जनवरी, 1921 को कुमाऊं केसरी बंद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में कुली बेगार के खिलाफ पहली बार आवाज उठी थी। बागेश्वर से कुली बेगार के खिलाफ आंदोलन पूरे पहाड़ में फैला। 30 जनवरी, 1921 को चमेठाखाल गढ़वाल में वैरिस्टर मंदीलाल के नेतृत्व में आंदोलन आगे बढ़ा। खल्द्वारी के ईश्वरीदत्त ध्यानी और बंदखणी के मंगतराम खंतवाल ने मालगुजारी से त्यागपत्र दिया। गढ़वाल में दशजूला पट्टी के ककोड़ाखाल (गोचर से पोखरी पैदल मार्ग) नामक स्थान पर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में आंदोलन हुआ और अधिकारियों को कुली नहीं मिले।

छात्रों ने आंदोलन को बढ़ाया था आगे
लेखक चारु तिवारी बताते हैं कि बागेश्वर व गढ़वाल के बाद इलाहाबाद में अध्ययनरत गढ़वाल के छात्रों ने अपने गांव लौटकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। इनमें भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त चंदोला, जीवानंद बडोला प्रमुख थे। उत्तरायणी का ही संकल्प था कि पहली बार यहां की महिलाओं ने अपनी देहरी लांघकर आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी करना शुरू किया। कुंती देवी, बिसनी साह जैसी महिलाएं आंदालनों का नेतृत्व करने लगी। तब एक गीत सभी की जुबान पर रहा था-
अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम,
तुम स्वदेशी नाम लिखा दो बलम।
मैं भी स्वदेशी प्रचार करूंगी,
मोहे परदे से अब तो हटा दो बलम।

महिलाओं ने रच दिए थे गीत
आजादी के आंदोलन में महिलाओं के उठते स्वरों ने बड़ी चेतना की शुरुआत थी। चारु तिवारी कहते हैं इसने बाद में महिलाओं को सामाजिक जीवन में आगे आने का आकाश दिया। बिशनी साह ने तब कहा- च्सोने के पिंजरे में रहने से अच्छा, जंगल में रहना है।ज् तक एक गीत बड़ा लोकप्रिय हुआ-
घाघरे गुनी, बाजरक र्वट,
सरकारक उजडऩ ऐगो,
डबल में पडग़ो ट्वट।।

आजादी के बाद भी उठते रहे चेतना के स्वर
बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ से चेतना के स्वर उठते रहे हैं। आजादी के बाद सत्तर के दशक में जब जंगलात कानून के खिलाफ आंदोलन चला तो आंदोलनकारियों ने उत्तरायणी के अवसर पर यहीं से संकल्प लिए। नए जनगीतों का आगाज हुआ- आज हिमालय तुमन क ध्यतौंछ, जागो-जागो ये मेरा लाल। अस्सी के दशक में जब नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन चला तो उत्तरायणी से आंदोलन के स्वर मुखर हुए। लेखक चारु तिवारी बताते हैं कि 1987 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भवदेव नैनवाल ने भ्रष्टाचार के प्रतीक कनकटे बैल को प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने पेश करने के लिए दिल्ली रवाना किया तो बागेश्वर से ही संकल्प लिया गया। राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर में राज्य आंदोलन के लिए हर वर्ष नई चेतना के लिए आंदोलनकारी उत्तरायणी में जुटते थे।

गैरसैंण राजधानी का प्रस्ताव हुआ था पास
उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनाने के लिए संकल्प-पत्र और वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण का नाम चंद्रनगर रखने का प्रस्ताव भी 1992 में यहीं से पास हुआ। तभी जनकवि गिर्दा ने उत्तराखंड आंदोलन को स्वर देते हुए कहा कि- उत्तरैणी कौतिक ऐगो, वैं फैसाल करूंलों, उत्तराखंड ल्हयूंल हो दाज्यू उत्तराखंड ल्हयूंलो। चारु तिवारी कहते हैं उत्तरायणी न केवल हमारी सांस्कृतिक थाती है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आॢथक और समसामयिक सवालों को समझने और उनसे लडऩे की प्रेरणा भी है। जब हम उत्तरायणी को मनाते हैं तो हमारे सामने संकल्पों की एक लंबी यात्रा के साथ चलने की प्रेरणा भी होती है। उत्तराखंड के बहुत सारे सवाल राज्य बनने के बीस वर्षों बाद भी आम जन को बेचैन कर रहे हैं।

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