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वैदिककालीन महाऔषधीय वन में है जड़ी बूटियों का अद्भुत संसार, जानिए

वैदिककालीन महाऔषधीय वन यानी द्रोणागिरि पर्वतमाला, जहां आज भी मौजूद है अनगिनत औषधीय वनस्पतियों का अद्भुत संसार।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Wed, 19 Dec 2018 07:43 PM (IST)Updated: Wed, 19 Dec 2018 08:43 PM (IST)
वैदिककालीन महाऔषधीय वन में है जड़ी बूटियों का अद्भुत संसार, जानिए
वैदिककालीन महाऔषधीय वन में है जड़ी बूटियों का अद्भुत संसार, जानिए

जगत सिंह रौतेला, द्वाराहाट : वैदिककालीन महाऔषधीय वन यानी द्रोणागिरि पर्वतमाला, जहां आज भी मौजूद है अनगिनत औषधीय वनस्पतियों का अद्भुत संसार। समुद्रतल से यही कोई साढ़े आठ हजार फीट की ऊंचाई पर द्रोण पर्वत स्थित पांडवों की खोली त्रेता एवं द्वापरयुगीन भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत के साथ आयुर्वेद की आधारभूत धरोहर को भी संजोए हुए है।

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कुमाऊं की प्राचीन आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं स्थापत्य कला की केंद्र रही पौराणिक द्वारका से लगभग 22 किमी दूर है पांडवखोली दूनागिरि पर्वत श्रृंखला में शामिल है। इसे त्रेता में यहां संजीवनी बूटी के अंश गिरे तो संजीवनी प्रदेश नाम पड़ा। गर्ग मुनी ने यहां तप किया। पांडवखोली के सामने भरतकोट की ऊंची चोटी से निकलने वाली नदी का नाम गगास नदी के रूप में मिला। खास बात कि यह पर्वतमाला मानसखंड के महाऔषधि वन को चरितार्थ भी करती है। यहां पग पग पर औषधीय पौधों की भरमार वाकई संजीवनी प्रदेश का आभास कराती है। वज्रदंती, सफेद व काली मूसली, पीपली आदि सैकड़ों औषधीय पौधे यहां की पहचान हैं।

अज्ञातवास में पांडुपुत्रों ने किया तप तो कहलाया पांडवखोली

आध्यात्मिक द्रोणागिरी (दूनागिरि) की पर्वत श्रृंखला है 'पांडवखोली'। आध्यात्म से लबरेज ऐसा स्थल जहां द्वापर में पांडू पुत्रों ने अज्ञातवास का आखिरी दौर गुजारा। ध्यान लगाया। कालांतर में महाअवतार बाबा ने इसी स्थल से वैदिक संस्कृति से जुड़े 'क्रिया योग' को पुनर्जीवित किया। चूंकि यह पर्वत शिखर ब्रह्मज्ञान भी कराता है लिहाजा इसे ब्रह्मï पर्वत भी कहा जाता है। गर्ग मुनि, गुरु द्रोण आदि तमाम ऋषि मनिषियों की तपो स्थली पौराणिक द्वारका ध्यान योग का भी गढ़ रही है। महाअवतार बाबा से 'क्रिया योग' की दीक्षा शिष्य श्यामाचरण लाहड़ी ने पांडवखोली में ही ली थी। फिर युक्तेश्वर महाराज व परमानंद योगानंद ने इसी तपो स्थली से भारतीय वैदिक परंपरा 'क्रिया योग' को आगे बढ़ाया। चार दशक पूर्व ध्यानमग्न महात्मा बलवंत गिरि जी महाराज आध्यात्म के इसी केंद्र में ब्रह्मïलीन हुए थे। तभी से पांडवों की खोली में उत्सव की परंपरा है।

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