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पहाड़ से गायब होते जा रहे लोहा, तांबा, पीतल व कांसे के बर्तन, स्‍टील और नॉनस्‍टि‍क ने ले ली जगह

वक्त के सा‍थ पहाड़ की संस्कृति और खान-पान पर विपरीत असर डाला है। चूल्हे व बड़ी रसोई में भोजन बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले बर्तन तो अब नजर ही नहीं आते। लोहा तांबा पीतल और कांसे के बर्तनों की जगह अब स्टील के बर्तनों ने ले ली है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sun, 25 Oct 2020 08:50 AM (IST)Updated: Sun, 25 Oct 2020 08:50 AM (IST)
पहाड़ से गायब होते जा रहे लोहा, तांबा, पीतल व कांसे के बर्तन, स्‍टील और नॉनस्‍टि‍क ने ले ली जगह
पहाड़ से गायब होते जा रहेे लोहा, तांबा, पीतल व कांसे के बर्तन।

चम्पावत, जेएनएन : वक्त के बदलाव ने पहाड़ की संस्कृति के साथ ही यहां के रहन-सहन और खान-पान पर विपरीत असर डाला है। चूल्हे व बड़ी रसोई में भोजन बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले बर्तन तो अब नजर ही नहीं आते। लोहा, तांबा, पीतल और कांसे के बर्तनों की जगह अब स्टील के बर्तनों ने ले ली है। खाद्यान की मात्रा मापने के लिए प्रयुक्त होने वाली नाली और माणे का जमाना अब बीत चुका है।

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पर्वतीय समाज में लोक संस्कृति के साथ ही खानपान की परंपरा पूरी तरह बदल गई है। कभी भोजन तैयार करने से लेकर परोसने में शुद्धता और साफ सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता था। भोजन में लोहे, तांबे और कांसे का मिश्रण बना रहे इसके लिए संबंधित धातुओं के बने बर्तनों में भोजन बनाया जाता था। अब यह परंपरा स्टील तथा नॉनस्टिक बर्तनों के आने से पूरी तरह हाशिये पर चली गई है।

पहले पीतल व कांसे की तौली का इस्तेमाल विशेषकर रोजमर्रा के खानपान में दाल भात बनाने के लिए किया जाता था। दाल तैयार करने के लिए खासकर कांसे से बने भड्डू का इस्तेमाल होता था। लोहे की कढ़ाइयों में सूखी सब्जी बनती थी। पानी हमेशा तांबे से बने घड़े में रखा जाता था ताकि उसकी पौष्टिकता व शुद्धता बनी रही। आटा गूंथने के लिए तांबे व पीतल की परातें इस्तेमाल में आती थीं। लकड़ी से बनीं ठेकी दूध रखने, दही जमाने और मटठा बनाने के काम आती थी। दही को गजेठी से मथकर छांछ तैयार होती थी।

वर्तमान में मक्खन और छांछ भी स्टील के पतीले में मोटर के सहारे मथकर तैयार की जा रही है। खाना बनाने से पूर्व खाद्यान्न की माप करने के लिए लकड़ी से बनी नाली और माणे का उपयोग होता था। खाद्यान्न की माप के आधार पर रसोइया खाना तैयार करता था। इन बर्तनों में खाने वाले लोगों की संख्या के आधार पर खाद्यान्न की मात्रा डाली जाती थी जिससे भोजन के बर्बाद होने की संभावना नहीं रहती थी। अब 90 प्रतिशत घरों में इसके लिए स्टील से बने बर्तनों का प्रयोग हो रहा है।

पूर्वजों की याद के लिए सहेजे गए बर्तन

अधिकांश घरों से पुराने बर्तन गायब हो गए हैं। नाली, माणा, भड्डू, ठेकी, गजेेठी अब पुरानी यादों को सहजने के लिए ही कुछ घरों में रखे गए हैं। वर्तमान में प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव ओवन नॉनस्टिक कढ़ाइयां, फ्राईपान आदि बर्तनों का उपयोग हो रहा है। इस बदलाव से रसोई में चमक भले ही दिखे, लेकिन खानपान का स्वाद व पौष्टिक तत्वों की मात्रा गायब हो गई है।

टैंटों ने ले ली बड़ी रसोई की जगह

शादी ब्याह, जनेऊ, गृह प्रवेश आदि बड़े कार्यक्रमों में पहले चूल्हे में रसोई तैयार की जाती थी। बुजुर्ग लोग धोती पहनकर भोजन करते थे और उनके भोजन करने के बाद अन्य लोगों को पंक्ति में बैठाकर भोजन परोसा जाता था जिसे लौर कहते थे। लेकिन अब भोजन टैंटों में बनने लगा है। लोग खड़े-खड़े भोजन कर रहे हैं। बड़े कार्यक्रमों में बड़े बुजुर्ग अभी भी धोती पहनकर रसोई का भोजन करते हैं लेकिन इनकी संख्या गिनी चुनी रह गई है। यह बात काफी सुखद है कि अब लोग टैंटों में बने भोजन के बजाए रसोई में बने भोजन को पसंद करने लगे हैं।

बड़ी रसोई में भी एल्मूनियम के डेगों का हो रहा प्रयोग

पिछले 20 साल से सामूहिक रसोई बना रहे पाटन गांव के गणेश दत्त पांडेय, गिरीश दत्त पांडेय, प्रकाश पाडेय, चंद्रशेखर पाटनी बताते हैं कि अब बड़ी रसोइयों में तांबे के तौलों के बजाए एल्मूनियम केडेगों का प्रचलन बढ़ गया है, लेकिन तांबे के तौलों में भात तथा कहीं कहीं भड्डू की दाल आज भी बनती है।


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