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रामपुर तिराहा कांड मामले में 25 साल बाद फिर जगी न्‍याय की आस, जाने क्‍या है पूरा मामला

राज्य आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के दमन तथा राज्य की सेवाओं में आंदोलनकारियों को दस फीसद क्षैतिज आरक्षण के मामले में 25 साल बाद फिर न्याय की उम्मीद जगी है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Wed, 02 Oct 2019 07:48 AM (IST)Updated: Wed, 02 Oct 2019 07:48 AM (IST)
रामपुर तिराहा कांड मामले में 25 साल बाद फिर जगी न्‍याय की आस, जाने क्‍या है पूरा मामला
रामपुर तिराहा कांड मामले में 25 साल बाद फिर जगी न्‍याय की आस, जाने क्‍या है पूरा मामला

नैनीताल, किशोर जोशी : राज्य आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के दमन तथा राज्य की सेवाओं में आंदोलनकारियों को दस फीसद क्षैतिज आरक्षण के मामले में 25 साल बाद फिर न्याय की उम्मीद जगी है। सुप्रीम कोर्ट ने दो विशेष अनुमति याचिकाएं स्वीकार करते हुए राज्य के 13 जिलों के डीएम व प्रमुख सचिव गृह को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। 

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पहली अक्टूबर 1994 को आंदोलनकारियों का मार्च दिल्ली के लिए निकला। गढ़वाल से आंदोलनकारी जब रात 12:30 बजे मुजफ्फरनगर में नारसन से लेकर रामपुर तिराहा तक पहुंचे तो उन्हें रोक लिया। पुलिस ने अचानक लाठीचार्ज व आंसू गैस छोडऩा शुरू कर दिया। इस गोलीकांड में तमाम आंदोलनकारी शहीद हुए जबकि महिलाओं के साथ सामुहिक दुष्कर्म व छेड़छाड़ की घटनाएं हुईं। 

इन मामलोंं को लेकर सात अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड संघर्ष समिति द्वारा आधा दर्जन याचिकाएं इलाहाबाद हाई कोर्ट में दाखिल की गईं। छह दिसंबर 1994 को कोर्ट ने सीबीआइ से खटीमा, मसूरी व मुजफ्फरनगर कांड पर रिपोर्ट मांगी। सीबीआई ने कोर्ट में सौंपी रिपोर्ट में स्वीकारा कि सात सामूहिक दुष्कर्म, 17 महिलाओं से छेड़छाड़ तथा 26 हत्याएं की गईं। सीबीआइ के पास कुल 660 शिकायतें की गई। 12 मामलों में पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दिया था 10-10 मुआवजा देने का आदेश्‍ा  

19 जनवरी 1995 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में आरोपित अफसरों ने सरकारी अनुमति के बिना मुकदमा चलाए जाने को लेकर याचिका दायर की। जिस पर कोर्ट ने फैसला दिया कि हत्या, दुष्कर्म समेत संगीन अपराधों के मामले में शासकीय अनुमति की जरूरत ही नहीं है। कोर्ट ने इसे मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए मृतकों के परिजनों व दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं को दस-दस लाख मुआवजा जबकि छेड़छाड़ की शिकार महिलाओं व पुलिस हिरासत में उत्पीडऩ के शिकार आंदोलनकारियों को 50-50 मुआजवा देने के आदेश दिया। इस निर्णय के खिलाफ अभियुक्तों तथा यूपी सरकार द्वारा चार विशेष अनुमति याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गईं। 

सर्वोच्च अदालत ने खारिज किया हाई कोर्ट का आदेश

13 मई 1999 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया जिनको मुआवजा दिया जा चुका है, उनसे वापस नहीं लिया जाएगा। विशेष सबूतों के साथ वाले को मुआवजा अनुमन्य कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में सीबीआई जांच के आदेश को बरकरार रखा। जिसके बाद सीबीआई ने 12 मामलों में चार्जशीट दाखिल की। सात मामले मुजफ्फरनगर में जबकि पांच मामले उत्तराखंड में हैं। इसी बीच आरोपितों द्वारा केस को इलाहाबाद से लखनऊ कोर्ट ट्रांसफर के लिए अर्जी दाखिल की। चार मामलों के ट्रांसफर कर दिए जबकि एक मुकदमा इसलिए रुका कि अर्जी नहीं थी। इसी बीच राज्य बन गया। सीबीआइ द्वारा पांच अभियुक्तों के खिलाफ धारा 304, 307 व 324 व 326, सपठित-34 आइपीसी के तहत आरोप पत्र दाखिल किया, 22 अप्रैल 1996 को सीबीआई कोर्ट के जज द्वारा इसे 302, 307, 324, 326 व सपठित-34 के तहत केस नंबर 42-1996 में चार्ज फ्रेम किए। 

उत्तराखंड हाई कोर्ट सीबीआइ कोर्ट का आदेश निरस्‍त किया 

22 जुलाई 2003 में तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह द्वारा 42-1996 में जमानत के उपरांत आरोप पत्र को उत्तराखंड हाई कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने सिंह की याचिका स्वीकार करते हुए सीबीआइ कोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया। 22 अक्टूबर 2003 को आंदोलनकारियों द्वारा रिकॉल एप्लीकेशन फाइल की गई तो जस्टिस पीसी वर्मा व जस्टिस एमसी घिल्डियाल की खंडपीठ ने पूर्व के आदेश को रिकॉल कर लिया। 28 मई 2005 को जस्टिस इरशाद हुसैन व जस्टिस राजेश टंडन की कोर्ट ने मामले को निरस्त कर दिया। इस केस में कांस्टेबल एक संतोष गिरी हाजिर माफी गवाह था। उसकी बॉम्बे एक्सप्रेस में गाजियाबाद के समीप गोली मारकर हत्या कर दी गई। सीबीसीआइडी ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी। इसी बीच कोर्ट में आरक्षण का मामला चला। मानवाधिकार उल्लंघन होने को देखते हुए राज्य सरकार द्वारा दस फीसद क्षैतिज आरक्षण दिया गया। आंदोलनकारी करुणेश जोशी द्वारा याचिका दायर कर शासनादेश का लाभ देने की मांग की। जस्टिस तरुण अग्रवाल की एकलपीठ ने 1269- 2004 के शासनादेश को संविधान का उल्लंघन करार देते निरस्त कर दिया।

जस्टिस घोष व जस्टिस गुप्ता आंदालनकारियों को कहा राउडी   

राज्य सरकार द्वारा 2010 आरक्षण नियमावली बनाई, करुणेश जोशी फिर पहुंच गया। 68-2011 पीआइएल बनाने चीफ जस्टिस बारिन घोष व जस्टिस सर्वेश गुप्ता ने मामले में सुनवाई के दौरान आंदोलनकारियों के लिए राउडी शब्द का प्रयोग करते हुए दोनों शासनादेशों के तहत नियुक्तियों पर रोक लगा दी। जस्टिस आलोक सिंह व जस्टिस सर्वेश कुमार गुप्ता की खंडपीठ में अधिवक्ता रमन कुमार शाह आंदोलनकारियों की ओर से इन्टरवेंशन प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया। कोर्ट से पूछा कि राउडी उत्तराखंडी हैं या आंदोलनकारी तो कोर्ट ने मामला अग्रसारित कर दिया। जस्टिस धूलिया व जस्टिस ध्यानी की खंडपीठ ने अलग-अलग फैसला दे दिया। ध्यानी ने आरक्षण को सही ठहराया तो धूलिया ने संविधान का उल्लंघन करार दिया। फिर मामला तीसरी बेंच को दे दिया तो धूलिया के पक्ष में चले गए। राज्य आंदोलकारी रमन शाह द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर की गई। शाह द्वारा तीनों आदेशों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की गई है, जिसमें राज्य सभी 13 जिलाधिकारियों, प्रमुख सचिव गृह तथा उत्तराखंड आंदोलनकारी मंच को नोटिस जारी किए गए हैं। एसएलपी स्वीकार हो चुकी है। केस के स्टेटस तथा उसकी प्रमाणित कॉपी के लिए सीबीआई ने देहरादून की कोर्ट में प्रार्थना पत्र दिया है। 

बिना सुप्रीम कोर्ट की अनुमति के ट्रांसफर कर दिया केस

सीबीआई कोर्ट की ओर से कहा गया कि मुकदमे से संबंधित पत्रावली उपलब्ध नहीं है तो अधिवक्ता शाह द्वारा पिछले साल हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई। जिसमें कांस्टेबल सुभाष गिरी की हत्या की जांच की भी मांग उठाई गई है। इस मामले में हाई कोर्ट ने जिला कोर्ट देहरादून से रिपोर्ट मांगी। 11 मई 2018 को देहरादून जिला जज द्वारा रिपोर्ट सौंपी गई, जिसमें कहा कि 42-96 केस सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन में सीबीआइ बनाम एसके सिंह मुजफ्फरनगर मामला पांच मार्च 2003 को भेज दिया गया। इस पर हाई कोर्ट में प्रार्थना पत्र दाखिल किया तो मुकदमे के ट्रांसफर का कोई आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नहीं दिया गया। एसएलपी में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर जज की अध्यक्षता में गवाह की हत्या के मामले की तथा मुुकदमा ट्रांसफर की जांच के आदेश पारित करने की गुहार लगाई है। 


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