आजादी के उत्सव पर कुमाऊं के 1400 योद्धाओं को सैल्यूट
स्वतंत्रता आंदोलन में कुमाऊं के करीब 1400 योद्धा ऐसे थे, जिन्होंने सौगंध खाई कि देश जब तक आजाद नहीं होगा, तब तक वे खुद भी चैन से नहीं बैठेंगे।
हल्द्वानी, नैनीताल [जेएनएन]: उत्सव फिर सामने है। आजादी का उत्सव। खुशियां मनाने का उत्सव। योद्धाओं को सलाम करने का उत्सव जिनकी वजह से हम आज गुलामी से मुक्त हैं। जिनके बलिदान से हमें संवैधानिक व्यवस्था में जीने का अधिकार मिला है। उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लिया। डटकर खड़े रहे और दिखा दिया कि हिंदुस्तानी कमजोर नहीं होते हैं। इस उत्सव में कुमाऊं की धरती का भी बड़ा योगदान है। स्वतंत्रता के लिए छिड़े युद्ध की साक्षी रही इस जमीन ने उन योद्धाओं को जन्म दिया, जिनकी हिम्मत के आगे फिरंगियों को हार माननी पड़ी। देश छोड़ना पड़ा और तिरंगा शान से लहराया।
स्वतंत्रता आंदोलन में कुमाऊं के करीब 1400 योद्धा (स्वतंत्रता सेनानी व आजाद हिंद फौज के सिपाही) ऐसे थे, जिन्होंने सौगंध खाई कि देश जब तक आजाद नहीं होगा, तब तक वे खुद भी चैन से नहीं बैठेंगे। इस सौगंध को उन्होंने पूरा किया। हर आंदोलन में पूरी शिद्दत से उतरे। लाठियां खाई, जेल गए। जलालत सही, लेकिन फिर भी इरादों को नहीं बदला।
कुमाऊं के इन योद्धाओं में से अब कुछ ही जीवित बचे हैं। जो जीवित हैं, उनका जोश आज भी वैसा ही दिखता है, जैसा गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाते समय था। सबसे खास बात यह भी है कि कुमाऊं में आंदोलन की धार को देखते हुए, लोगों के भीतर आजादी के लिए उबल रही ज्वाला को देखते हुए खुद गांधी जी यहां आए थे। उन्होंने लोगों की हिम्मत को और बढ़ाया। समय के साथ परिस्थितियां बेशक बदल गई हैं, लेकिन यादें आज भी जिंदा हैं। आइए इस उत्सव के बहाने एक बार फिर उन योद्धाओं के बलिदान और आंदोलन का स्मरण कर उन्हें सैल्यूट करते हैं, जिन्होंने जान की परवाह न कर देश को आजाद कराया।
अंग्रेजों की आंखों में खटका था सल्ट
इस धरती ने लिखी है क्रांति की इबारत आजादी की लड़ाई में जब भी कोई आंदोलन शुरू हुआ तो कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा से लगा सल्ट क्षेत्र भी इन आंदोलनों से अछूता नहीं रहा। सन् 1920 में क्षेत्र में पुरुषोत्तम उपाध्याय की अगुवाई में लोगों ने आजादी का बिगुल बजाया। 1922 में महात्मा गांधी के जेल जाने पर यहां के क्रांतिवीरों ने इसका जबरदस्त प्रतिकार किया। उपाध्याय 1927 में सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह संघर्ष में कूद गए। 1927 में नशाबंदी, तंबाकू बंदी आंदोलन के दौरान धर्म सिंह मालगुजार के गोदामों में रखा तंबाकू जला दिया गया। इस क्षेत्र में अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, जंगल सत्याग्रह, कुली बेगार, अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे आंदोलन सर्वव्यापी रूप ले चले।
सबसे बड़ी बात यह है कि आजादी की लड़ाई के दौरान इस क्षेत्र में अंग्रेजों का कोई नियम-कानून नहीं चलता था। जिससे गुस्साए अंग्रेजी हाकिम जानसन ने पांच सितंबर 16942 में खुमाड़ में आजादी के दीवानों की सभा पर गोलीबारी कर दी। इस दौरान दो सगे भाई गंगाराम व खीमानंद मौके पर ही शहीद हो गए। जबकि चार दिन बाद घायल चूड़ामणी व बहादुर सिंह भी शहीद हो गए। देशभक्ति की इस भावना को देखते हुए महात्मा गांधी ने इस इलाके को कुमाऊं की बारदोली का नाम दिया। आज भी इस इलाके में आजादी के उस आंदोलन की स्मृतियां जिंदा हैं।
...और सालम में बढ़ते गए क्रांतिवीर
नौ अगस्त 1942 को गांधी जी के ‘करो या मरो’ उद्घोष के बाद अल्मोड़ा जिले के सालम क्षेत्र में क्रांति की चिंगारी भड़क उठी थी। सालम क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राम सिंह धौनी के इलाहाबाद से बीए की डिग्री लेकर वापस आने के बाद से ही वर्ष 1919 से आजादी की लड़ाई का आगाज हो गया था। यह लड़ाई धीरे धीरे परवान चढ़ती गई और आजादी के क्रांतिवीरों की बढ़ती संख्या एक कारवां में तब्दील होती चली गई। 23 अगस्त 1942 को सालम के नौगांव में आजादी के परवाने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने के लिए रणनीति तय कर रहे थे, लेकिन तभी अंग्रेजों ने सभा पर धावा बोल दिया और कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया।
गुस्साए आजादी के दीवानों ने 25 अगस्त को इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को छुड़ाने के लिए बिगुल फूंक दिया और धामदेव के टीले पर सैंकड़ों आजादी के दीवाने एकत्र हो गए। लेकिन यहां भी ब्रितानी हुकुमत ने लोगों को तितर बितर करने के लिए गोलियां चलाई। जिसमें सालम के दो सपूत नर सिंह धानक और टीका सिंह कन्याल मौके पर ही शहीद हो गए थे। सालम को कुमाऊं मे क्रांति का सबसे बड़ा अग्रदूत माना जाता है। आज इतने सालों बाद सालम की क्रांति को लोग याद करते हैं तो देशभक्ति का जज्बा स्वत: स्फूर्त लोगों के दिलों में हिलोरे मारने लगता है।
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