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... तो इस वजह से वनकर्मी पौधरोपण को लेकर अपनाते हैं उदासीन रवैया, जानिए

वन विभाग भी मानता है कि उसके द्वारा लगाए गए सभी पौधों का जंगल में संरक्षित होना संभव नहीं है। यही वजह है कि वनकर्मी भी अक्सर पौधरोपण को लेकर उदासीन रवैया अपनाते हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Thu, 02 Jul 2020 01:30 PM (IST)Updated: Thu, 02 Jul 2020 01:30 PM (IST)
... तो इस वजह से वनकर्मी पौधरोपण को लेकर अपनाते हैं उदासीन रवैया, जानिए
... तो इस वजह से वनकर्मी पौधरोपण को लेकर अपनाते हैं उदासीन रवैया, जानिए

हल्द्वानी, जेएनएन : वन विभाग भी मानता है कि उसके द्वारा लगाए गए सभी पौधों का जंगल में संरक्षित होना संभव नहीं है। यही वजह है कि वनकर्मी भी अक्सर पौधरोपण को लेकर उदासीन रवैया अपनाते हैं। अफसरों का गैर जिम्मेदराना रवैया भी संरक्षण की दिशा में रोड़े अटकाता है। वहीं, उत्तर प्रदेश के समय से चले आ रहे नियम के मुताबिक अगर आठ साल बाद भी मूल जगह पर 35 प्रतिशत पौधे भी वृक्ष का आकार लेते है तो पौधरोपण सफल माना जाएगा। बस यही नियम विभाग का सुरक्षा कवच बना हुआ है।

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जुलाई का सीजन शुरू होते ही पौधरोपण को लेकर वन विभाग बड़े स्तर पर अभियान चलाता है। बारिश की वजह से मिट्टी में नमी की मात्रा का बढऩा पौधों को पोषण देता है। पहाड़ के चार जिलों अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत व पिथौरागढ़ में 16 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है। वहीं, तराई के जंगलों में मूल प्रजातियों को बढ़ावा दिया जाएगा। यूकेलिप्टस व पॉपुलर का दायरा कम करने के साथ मिश्रित वन को बढ़ाने के लिए यह जरूरी भी है। फॉरेस्ट अफसरों के मुताबिक पौधरोपण के बाद कई बार पेड़ों में कमी के कारण भी उनकी छंटाई करनी पड़ती है। कुछ पौधों का रोपण ही सफल नहीं हो पाता। जिस वजह से भी संख्या में कमी आती है।

साल दर साल पेड़ों के बचने का प्रतिशत:

साल       प्रतिशत

0-1        95 प्रतिशत

1-2        80 प्रतिशत

3-4        70 प्रतिशत

4-5        60 प्रतिशत

5-6        50 प्रतिशत

6-7        45 प्रतिशत

7-8        40 प्रतिशत

आठ साल बाद   35 प्रतिशत

तराई में लगने वाली प्रजाति व उनका महत्व

नैनीताल व ऊधमसिंह नगर के जंगल में लगने वाले पौधों का बड़ा हिस्सा वन विभाग की नर्सरी से आता है। जहां सीजन के लिए पौधे तैयार किए जाते हैं। तराई की डिवीजनों को कॉमर्शियल नजर से देखने की वजह से यहां पॉपुलर व यूकेलिप्टस को पहले बढ़ावा दिया गया, लेकिन अब इनका प्रतिशत कम किया जा रहा है। इस बार शीशम, खैर, सेमल, अमलताश, हरड़, बहेड़ा, आंवला, बकैन, बेल व गुटैल को शामिल किया गया है। वन अनुसंधान के रेंजर मदन बिष्ट ने बताया कि इन प्रजातियों से वन्यजीवों को भोजन मिलेगा। शीशम व बकैन इमारती श्रेणी में भी शामिल है। वहीं, आंवला, हरड़ व बहेड़ा औषधीय महत्व के भी है।

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