सत्तर साल से बांस के डंडों पर पन्नी तान कर बीत रही जिंदगी, नेता जी सिर्फ वोट ले रहे
हमारे पास जमीन ही नहीं हम आसमान के ख्वाब क्या देखें। ईंट है न टिन। बांस के डंडों पर पन्नी तानकर जिंदगानी चल रही है। बस्ती में बिजली-पानी नहीं।
हल्द्वानी, जेएनएन : हमारे पास जमीन ही नहीं, हम आसमान के ख्वाब क्या देखें। ईंट है न टिन। बांस के डंडों पर पन्नी तानकर जिंदगानी चल रही है। बस्ती में बिजली-पानी नहीं। सत्तर साल से इन अंधेरे मकानों में केवल उम्मीदों की लौ जल रही है। तब से लेकर अब तक तीन बार उजाड़े गए। परेशानियां दूर नहीं हुई। भले ही लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव, यहां जो भी वोट मांगने आया उसे वोट देते गए। अब आप सोच सकते हैं हमारे चुनावी मुद्दे क्या होंगे।
हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के ठीक सामने पीपल की छांव में ढोलक बस्ती के हिमायत अली ढोलक पर कसे हुए चमड़े ठोकते हुए नेताओं के चुनावी वादे गिनाते हैं। इस बस्ती से आगे गफूर बस्ती, बाबा जलाल शाह की मजार से आगे तक तमाम झुग्गी झोपडिय़ां हैं। हिमायत अली के आसपास कुछ लोग बैठे हैं जो 62 वर्ष के हिमायत को बस्ती का मुखिया बताते हैं। चुनाव का जिक्र छेड़ते ही लोगों में जैसे करंट दौड़ जाता है। साफ कहते हैं, हम पिछले चालीस-पचास साल से वोट देते आए हैं, लेकिन आप आसपास घूम कर देख लीजिए हमें क्या मिला। पुरानी जमीन छोड़ नहीं सकते, नई जमीन मिलती नहीं। आखिर जाएं तो जाएं कहां। आधार कार्ड, राशन कार्ड, वोटर कार्ड सबकुछ है। हिमायत लोगों को बीच में टोकते हैं और बताते हैं कि जिस भी पार्टी ने हमारे दुख दूर करने का वादा किया, हमने उस पर विश्वास कर उसे वोट दिया। गरीब हैं तो क्या हुआ, भ्रष्टाचार दूर हो और देश का विकास हो, यह हम भी चाहते हैं, लेकिन हमारा कुछ तो भला हो। जब कहीं अपना मकान ही नहीं तो हम और हम जैसे सैकड़ों लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे मिलेगा।
रिहाना भी इसी ढोलक बस्ती में रहती हैं। बताती हैं कि पहले यहां के बच्चे भीख मांगते थे। एक सामाजिक संस्था की पहल पर अब 95 बच्चे सरकारी स्कूल में पढऩे जाते हैं। 33 बच्चे और हैं जो सेंटर पर जाते हैं। फिर इनका स्कूल में दाखिला हो जाएगा। यहां बच्चे डांस भी सीख रहे हैं और गंदी आदतें भी छोड़ रहे हैं। बदलाव आ रहा है।