जंगल का वो अफसर 139 साल बाद भी पहेली, आखिर था कौन उस वक्त का डीएफओ nainital news
हल्द्वानी वन प्रभाग उत्तराखंड का दूसरा डीएफओ 139 साल बाद भी पहेली बना है। महकमे की नजर में इस अधिकारी की सिर्फ एक पहचान है। अज्ञात।
हल्द्वानी, जेएनएन : रोमांच का दूसरा नाम जंगल है। बाघ-तेंदुए जैसे खूंखार वन्यजीवों की मौजूदगी के साथ रंग-बिरंगे पक्षियों का संसार भी यहां बसता है। कुदरत देखिए, दुर्लभ वनस्पतियां भी यहां खुदबखुद पनपती हैं। बाहर से बेहद खूबसूरत दिखने वाले जंगल के साथ कई रहस्य जुड़े हैं। बात अगर इनकी सुरक्षा संभालने वाले वन प्रभागों की करें तो उत्तराखंड का सबसे पुराना वन प्रभाग इसमें खास है। इस डिवीजन ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं और एक रहस्य आज भी इससे जुड़ा है। यह रहस्य है प्रभाग के दूसरे डीएफओ का जो 139 साल बाद भी पहेली है। महकमे की नजर में इस अधिकारी की सिर्फ एक पहचान है। 'अज्ञात'।
डिवीजन में कुल 82 अफसर बतौर प्रभागीय वनाधिकारी तैनात
हल्द्वानी वन प्रभाग उत्तराखंड की तीन सबसे पुरानी डिवीजनों में से एक है। इसका हिस्सा नैनीताल, ऊधमसिंह नगर व चम्पावत तक फैला है। तिकोनिया स्थित डीएफओ कार्यालय में लगे बोर्ड के मुताबिक 1872 से यहां डीएफओ की नियुक्ति रही है। सबसे पहले कैप्टन कैम्पबेल नामक अंग्रेज अफसर ने इसकी कमान संभाली। 1881 तक उनका कार्यकाल रहा। वहीं, दूसरे नंबर के अफसर का कार्यकाल 1881 से 1883 तक रहा, लेकिन वो अफसर कौन था? कहां से आया था? इससे जुड़ा कोई रिकॉर्ड वन विभाग के पास नहीं है। डिवीजन में कुल 82 अफसर बतौर प्रभागीय वनाधिकारी तैनात रह चुके हैं। इसमें से सिर्फ एक का ब्यौरा आज तक नहीं मिला। इसीलिए इस अफसर को अज्ञात में दर्ज कर दिया गया।
52 साल बाद भारतीय अफसर को कमान
हल्द्वानी डिवीजन की कमान भारतीय अफसर के हाथों में आने के लिए 52 साल का वक्त लगा। साल 1933 से 36 तक एमपी भोला नामक अफसर ने तीन साल तक प्रभाग का दायित्व निभाया। बाद मे फिर से अंग्रेज अधिकारी इस कुर्सी में बैठे थे। नीतीशमणि त्रिपाठी, वर्तमान डीएफओ ने बताया कि अफसर से संबंधित रिकॉर्ड मौजूद नहीं होने की वजह से नाम नहीं पता चल सका। बाकी सभी डीएफओ का डाटा वन विभाग के पास है।
आखिरी गोली से स्माइथिस ने नरभक्षी को ढेर किया
ब्रिटिश मूल के ईए स्माइथिस इस प्रभाग में दो बार डीएफओ रहे। साल 1925 में हल्द्वानी व आसपास के जंगल में एक नरभक्षी बाघ ने काफी आतंक मचाया था। शिकारियों के असफल रहने के बाद अफसर अपनी पत्नी संग खुद जौलासाल के जंगल में उसे तलाशने लगे। तीस नवंबर 1925 को मचान पर बंदूक लेकर खड़े दंपती पर बाघ ने हमला बोल दिया। उस समय डीएफओ ने बंदूक में बची आखिरी गोली से नरभक्षी को ढेर कर दिया। इस घटना से जुड़े फोटो लंदन की एक लाइब्रेरी से मंगवाए गए हैं। उन्हें बकायदा नंधौर के म्यूजियम में रखा गया है।
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