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2 October बापू ने कुमाऊं में गुजारे थे 18 दिन, यहीं लिखी थी श्रीमद्भगवत गीता पर टीका, खो गई थी लाठी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 18 दिन तक कुमाऊं में रुके। वह 1929 में 14 जून से लेकर 2 जुलाई तक यहां प्रवास के दौरान 12 दिन कौसानी में बिताए।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Wed, 02 Oct 2019 08:16 AM (IST)Updated: Wed, 02 Oct 2019 08:16 AM (IST)
2 October बापू ने कुमाऊं में गुजारे थे 18 दिन, यहीं लिखी थी श्रीमद्भगवत गीता पर टीका, खो गई थी लाठी
2 October बापू ने कुमाऊं में गुजारे थे 18 दिन, यहीं लिखी थी श्रीमद्भगवत गीता पर टीका, खो गई थी लाठी

बागेश्वर, जेएनएन : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 18 दिन तक कुमाऊं में रुके। वह 1929 में 14 जून से लेकर 2 जुलाई तक यहां प्रवास के दौरान 12 दिन कौसानी में बिताए। जहां उन्होंने एक ओर लोगों में स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाई तो दूसरी ओर श्रीमद्भागवत गीता पर टीका अनासक्ति योग की प्रस्तावना पूरी की। कुमाऊं यात्रा के दौरान गांधी जी अल्मोड़ा, ताड़ीखेत, बागेश्वर भी रहे। यहां उन्हें लोगों का अपार प्रेम मिला। लोगों ने आंदोलन को तेज धार देने के लिए चंदा भी दिया। 

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21 जून 1929 बापू पहुंचे कौसानी 

अल्मोड़ा में बापू ने सुबह के समय प्रार्थना की और कौसानी की ओर रवाना हुए। उनके साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विक्टर मोहन जोशी, शांति लाल त्रिवेदी, बीडी पांडे आदि लोग थे। विभिन्न विद्यालयों में ऊन की कताई-बिनाई हो रही थी। बापू बहुत खुश थे। बापू ने नायक कौम की भलाई के लिए प्रवचन दिया। इस दौरान 4369 रुपये चंदा जमा हो गया था। महिलाओं ने भी 500 रुपये चंदा दिया। कुछ चीजों काे नीलाम किया गया। इस तरह कुल मिलाकर महात्मा गांधी को पांच हजार रुपये चंदा मिल गया था। महात्मा चार बजे शाम कौसानी पहुंचे। डाक बंगले में प्रार्थना हुई। गीता श्लोक, भजन आदि हुए। तीन अन्य लोगों व देवदास भाई के साथ बातचीत करते हुए वह रात 12 बजे सोए।

गोरों ने स्टेट बंगले में जाने की नही दी इजाजत

जब बापू अल्मोड़ा से कौसानी जा रहे थे तो उनको स्टेट बंगले जो कि अंग्रेजी हुकूमत के आधिपत्य में था। वहां रहने की इजाजत नहीं मिली। जिसके बाद वह जिला बोर्ड अल्मोड़ा में रुके। यह स्थान आजादी के आंदोलन चलाने वालों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। यहां की नैसर्गिक सुंदरता व आथित्य को देखते हुए वह 12 दिन तक यहां रुक गए।

कुली बेगार आंदोलन ले आई बागेश्वर

जनवरी 1921 में कुली बेगार आंदोलन जिसे बापू ने रक्तहीन क्रांति का नाम दिया था, उसी का सम्मोहन महात्मा को बागेश्वर खींच लाया। बापू को बागेश्वर तक लाने में स्वतंत्रता सेनानी विक्टर मोहन जोशी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वह जिद नही करते तो शायद ही बापू आते।

22 जून 1929 महात्मा पहुंचे बागेश्वर

सुबह के समय प्रार्थना सभा हुई। बागेश्वर जाने का कार्यक्रम हुआ। गरुड़ तक मोटर से सफर किया गया। गरुड़-बैजनाथ में बापू डोली में बैठे। रास्ते में सौराष्ट्र, अल्मोड़ा की बातचीत होती रही। अधिकतर समय बापू लाठी लेकर पैदल ही चलते रहे। बागेश्वर डाक बंगले में बारह बजे दिन में पहुंचे। यहां उन्‍होंने सरयू में स्नान किया और अपने कपड़े खुद धुले। बापू को स्वराज मंदिर की भूमि के स्थान पर मीटिंग में गए। मीटिंग के बाद स्वराज मंदिर का शिलान्यास बापू ने किया। बापू ने भोजन में गेहूं भिगोकर उसे बादाम के दो चार दानों के साथ पीस कर खाया। कुछ सब्जी व फल आदि भी खाए। इसके बाद उन्होंने लोगों के साथ बातचीत की। 

सांयकालीन प्रार्थना सरयू सरिता के सामने हुई

डाक बंगले के बरामदे में बापू के लिए गद्दी बिछा दी गई। काफी लोगों की उपस्थिति में शांत गंभीर आध्यात्मिक वातावरण बन गया। एक महिला ने बापू की आरती भी उतारी। उनकी श्रद्धा देख बापू काफी प्रभावित भी हुए। 

गरुड़ के लोगों ने आजादी के लिए इकठ्ठा किए 150 रुपये

गांधी जी गरुड़ पहुंचे तो गांधी चबूतरे में विशाल जनसभा को संबोधित किया। यहां लोगों ने उन्हें 150 रुपये की थैली भी दान स्वरूप दी गई। गागरीगोल में पधान दयाराम पंत ने उनका स्वागत किया। 

दुर्गाप्रसाद साह को कहा बागेश्वर का गांधी

गांधी जी लोगों से डाक बंगले में मिल रहे थे।। वहीं उस समय में दुर्गाप्रसाद साह गंगोला ( जो कि उस समय आठ-दस बरस के रहे होंगे) उन्होनें हाथ उठाकर वंदेमातरम का नारा लगाया। गांधीजी ने उनको अपने पास बुलाया और हाथ पकड़कर कहा आज से यह है बागेश्वर का गांधी। तभी से दुर्गाप्रसाद साह गांधी उपनाम से प्रसिद्ध हो गए।

जब महात्मा की खोई लाठी

बागेश्वर में महात्मा की बांस की लाठी खो गई। वह इसे हमेशा अपने साथ रखते थे। लोगों ने इसके बाद उनके लिए एक सुंदर लाठी बनाई। लाठी का मुठ्ठा चांदी का बनाया गया। जब वह लाठी गांधी जी को दी गई तो चांदी का मुठ्ठा देख हैरान हुए। उन्होंने कहा कि मैं दरिद्रनारायण इस चांदी के मुठ्ठे से क्या करूंगा। उन्होंने लाठी से उसे निकालकर वापस कर दिया।

प्रत्येक वस्तु राष्ट्र की संपत्ति

बागेश्वर में उनके साथ एक वाकया और हुआ, जो काफी चर्चाओं में रहा। वह जिला परिषद के डाक बंगले में रह रहे थे। सुबह के समय वह नहाने के लिए गए। उनके लिए गर्म पानी किया हुआ था। उन्हें अपने यात्रा के साथी शांति लाल त्रिवेदी को बुलाया। और कहा कि जो मैंने कल रुमाल में बांध कर साबुन के टुकड़े रखे थे उसे ले आओ। जब शांति लाल ने कहा कि वह तो खो गए। जिस पर बापू काफी नाराज हुए। उन्होंने कहा कि देश आजाद होने वाला है। अगर हम छोटी-छोटी चीजों को संभालना नहीं सीखेंगे तो देश कैसे संभालेंगे। प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु राष्ट्र की संपत्ति है। 

बागेश्वर के लोगों ने दी विदाई

23 जून 1929 को महात्मा गांधी बागेश्वर से कौसानी की ओर लौटे। भारी संख्या में उपस्थित लोगों ने विदाई दी। गरुड़ तक वह अपने साथियों के साथ कभी पैदल तो कभी डोली में पहुंचे। गरुड़ से मोटर के जरिए शाम को कौसानी पहुंचे। जहां प्रार्थना सभा हुई। 

पर्यावरण संरक्षण की दी शिक्षा

कौसानी में महात्मा के साथ उनकी पत्नी कस्तूरबा, बेटा प्रभुदास गांधी व अंग्रेज शिष्या मीराबेन भी थी। सुबह के समय दातून के लिए मीराबेन से बापू ने आड़ू का छोटी टहनी लाने को कहा। मीराबेन पूरी शाखा तोड़ ले आई। तब बापू ने कहा कि इतनी बड़ी शाखा से क्या करुंगा मुझे तो छोटा सा टुकड़ा चाहिए था। वृक्ष हमारी अनमोल धरोहर हैं। यह पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत जरूरी हैं। 

जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके वह धर्म नहीं

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जहां स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाकर ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति का मार्ग दिखाया तो वही समूची मानव जाति को जीवन में आजादी का दर्शन अनासक्ति योग के माध्यम से कराया। सुरम्य पहाड़ी वादी कौसानी में श्रीमदभगवत गीता पर लिखी यह टीका आज पूरे विश्व को मार्गदर्शन व प्रेरणा दे रही है। टीका तब गुजराती भाषा में लिखी गई थी। दो जुलाई 1929 को बापू कौसानी से रवाना हुए। उन्होंने अनासक्ति योग के जरिए बताया कि 'जो धर्म व्यवहार में न लाया जा सके वह धर्म नहीं है। मेरी समझ में यह बात गीता में है।' गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि आसक्ति के बिना हो ही ना सकें वे भी त्याज्‍य हैं। उन्होंने इस किताब के जरिए बताया कि महाभारत में वेद व्यास ने केवल धर्म का दर्शन कराया है। महाभारतकार ने भौतिक युद्ध की आवश्यकता नहीं बल्कि उसकी निरर्थकता सिद्ध की है। विजेता ने रुदन कराया है, पश्चाताप कराया है और दुख के सिवाय कुछ नहीं करने दिया। 

डाक बंगला बन गया अनासक्ति आश्रम 

महात्मा जब कौसानी को रवाना हुए तो उन्हें ब्रिटिश शासन के अधीन स्टेट बंगले में रहने की अनुमति नहीं मिली। तब यह जिला बोर्ड अल्मोड़ा का डाक बंगला या लाल बंगला कहलाता था। बापू ने अनासक्ति योग पुस्तक इसी बंगले में पूरी की। यह लाल बंगला आजादी के आंदोलनकारियों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। गांधी जी की स्मृतियों को ङ्क्षजदा रखने के लिए 1963 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने इसे उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि को सौंपा। साथ ही इसे अनासक्ति आश्रम का नाम दिया। महात्मा के विचार और उनकी शक्ति आज भी अनासक्ति आश्रम में बैठकर महसूस की जा सकती है। उनके इस अनासक्ति योग ने व्यक्तिगत जीवन और गोरों से आजादी में अहम भूमिका निभाई। 

महात्मा के तीन बंदर दे रहे संदेश

अनासक्ति आश्रम में जब प्रवेश करते हैं तो वहां महात्मा के तीन बंदर दिखाई देते हैं। जो लोगों को बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो का संदेश देते हैं। उनका यह दर्शन आज भी लोगों के लिए प्रेरणादायी बना हुआ है। 


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