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देवीधुरा के मां बाराही धाम में इस बार नहीं आयोजित हुआ ऐतिहासिक बग्वाल मेला

चंपावत जिले के देवीधुरा के मां बाराही धाम में रक्षाबन्धन के दिन होने वाला बग्वाल मेला इस बार कोरोना वायरस के कारण नहीं आयोजित हुआ।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Mon, 03 Aug 2020 10:31 AM (IST)Updated: Mon, 03 Aug 2020 10:31 AM (IST)
देवीधुरा के मां बाराही धाम में इस बार नहीं आयोजित हुआ ऐतिहासिक बग्वाल मेला
देवीधुरा के मां बाराही धाम में इस बार नहीं आयोजित हुआ ऐतिहासिक बग्वाल मेला

लोहाघाट, जेएनएन : चंपावत जिले के देवीधुरा के मां बाराही धाम में रक्षाबन्धन के दिन होने वाला बग्वाल मेला इस बार कोरोना वायरस के कारण नहीं आयोजित हुआ। सोमवार को शारीरिक दूरी बनाकर ग्रामीण क्षेत्रों से पहुंचे श्रद्धालुओं ने पूजा-अर्चना की। पीठ आचार्य मोहन चंद्र जोशी ने पूजा-अर्चना संपन्न कराई। सुरक्षा की दृष्टि से सीओ ध्यान सिंह के नेतृत्व में पुलिस जवान मुस्तैदी से जुटे रहे। सीओ ने बताया कि कोरोना वायरस के चलते बाजार में देवरा बाजार में वाहनों को नहीं जाने दिया गया। एसडीएम आरसी गौतम सुबह से ही देवीधुरा मंदिर स्थल पर तैनात रहे। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस के कड़े बंदोबस्त किए गए थे। विभिन्न क्षेत्रों से पहुंचे श्रद्धालुओं ने अपनी बारी का इंतजार कर मां बाराही धाम देवीधुरा मंदिर में दर्शन किए।

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बीते दिनों प्रशासन की मौजूदगी में मां बाराही मंदिर समिति ने इस बार बग्वाल मेले को कोरोनावायरस के कारण स्थगित करने का निर्णय लिया था । बगवाली मेले के स्थान पर तय किया गया कि दशकों पुरानी धार्मिक मान्यताओं को निभाने के लिए सुरक्षित दूरी के साथ पूरा किया जाएगा। विधिवत पूजा-अर्चना होगी। मंदिर समिति के अध्यक्ष खीम सिंह लमगड़िया ने कहा था कि तीन अगस्त को होने वाला मुख्य मेला नहीं होगा। बगवाल के दिन चार खाम (चम्याल, गहरवाल, लमगड़िया और वालिग) के दस-दस योद्धा फर्रों के साथ प्रतीकात्मक बगवाल में शिरकत करेंगे। पूजा-अर्चना, मंदिर की परिक्रमा करने के बाद ये बगवाली वीर अपने घरों को चले जाएंगे। 

यह है बग्वाल मेले की परंपरा  

चार प्रमुख खाम चम्याल, गहरवाल, लमगड़िया, वालिग खाम के लोग पूर्णिमा के दिन पूजा-अर्चना के बाद फल-फूलों से बगवाल खेलते हैं। माना जाता है कि पूर्व में यहां नरबलि देने का रिवाज था, लेकिन जब चम्याल खाम की एक वृद्धा के इकलौते पौत्र की बलि की बारी आई, तो वंशनाश के डर से बुजुर्ग महिला ने मां बाराही की तपस्या की। देवी मां के प्रसन्न होने पर वृद्धा की सलाह पर चारों खामों ने दस-दस योद्धा आपस में युद्ध कर एक मानव बलि के बराबर रक्त बहाकर कर पूजा करने की बात स्वीकार ली थी। तभी से ही बगवाल का सिलसिला चला आ रहा है। 


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