वन क्षेत्र की नई परिभाषा के विरोध में दायर याचिकाओं पर हाइकोर्ट में हुई सुनवाई, जानें कोर्ट ने क्या कहा
हाइकोर्ट ने पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले वनों को वनों की श्रेणी से बाहर रखने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई बुधवार को सुनवाई की। मामले में कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से प्रति शपथपत्र पेश करने को कहा है।
नैनीताल, जेएनएन : हाइकोर्ट ने पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले वनों को वनों की श्रेणी से बाहर रखने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई बुधवार को सुनवाई की। मामले में कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से प्रति शपथपत्र पेश करने को कहा है। अगली सुनवाई के लिए दीपावली के बाद कि तिथि नियत की है।
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रवि मलिमठ व न्यायमूर्ति रविन्द्र मैठाणी की खंडपीठ में नैनीताल के पर्यावरणविद प्रो अजय रावत व अन्य की अलग अलग जनहित याचिकाओं पर सुनवाई हुई। याचिका में कहा गया है कि सरकार ने 19 फरवरी 2020 को एक नया आदेश जारी कर पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वनों की श्रेणी से बाहर कर दिया है । इससे पहले भी सरकार ने 10 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वन नही माना था।
न्यायालय ने इस आदेश पर रोक लगा दी थी परन्तु सरकार ने अपने आदेश में संशोधन कर 10 हेक्टेयर से पांच हेक्टेयर कर दिया, जो वन अधिनियम के विरुद्ध है। याचिककर्ताओं का यह भी कहना है कि फारेस्ट कन्जर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित है जिसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है परन्तु इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी है जिनको किसी भी श्रेणी में नही रखा गया। इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी शामिल किया जाए। जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके।
सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार के आदेश में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो , उनको वन की क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा और वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नही है। विश्वभर में भी जहाँ 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे है या उनका घनत्व 10 प्रतिशत है तो उनको भी वनों की श्रेणी में रखा गया । सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा है कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदलें। उत्तराखण्ड में 71 प्रतिशत वन होने कारण नदियों व सभ्यताओं के अस्तित्व बना हुआ है।