जापान की मियावाकी तकनीक से उत्तराखंड में बढ़ेगा जंगल, पहाड़ व मैदान की दो रेंज में काम शुरू
उत्तराखंड में जंगल का दायरा बढ़ाने के लिए वन विभाग अब जापान की मियावाकी तकनीक का सहारा लेगा।
हल्द्वानी, गोविन्द बिष्ट : उत्तराखंड में जंगल का दायरा बढ़ाने के लिए वन विभाग अब जापान की मियावाकी तकनीक का सहारा लेगा। पहाड़ व मैदान की दो रेंज में इस विधि से बेहतर परिणाम मिलने पर वन अनुसंधान सलाहकार समिति ने भी मुहर लगा दी है। अब बड़े पैमाने पर मियावाकी तकनीक का इस्तेमाल कर जंगलों को संवारा जाएगा। मिश्रित प्रजाति का इस्तेमाल और जमीन की फिजूलखर्ची नहीं होना इस तकनीक की खासियत है।
वन अनुसंधान केंद्र ने तराई की पीपलपड़ाव व पहाड़ में रानीखेत रेंज में एक साल पहले यह प्रयोग शुरू किया था। जुलाई में केंद्र की सलाहकार समिति ने अन्य जगहों पर भी इस तकनीक का इस्तेमाल करने पर मुहर लगा दी। पीपलपड़ाव में 0.25 हेक्टेयर वनभूमि पर काम किया गया था। अब दूसरे जंगलों में एक हेक्टेयर जमीन पर इसी विधि से वनस्पतियों का संरक्षण किया जाएगा। वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि प्राकृतिक जंगल व स्थानीय प्रजातियों के संरक्षण को लेकर यह तकनीक बेहद कारगर है। उत्तराखंड में पहली बार इस तरीके से काम किया गया है। वहीं संजीव चतुर्वेदी, वन संरक्षक अनुसंधान ने बताया कि आबोहवा से मेल खाने वाली स्थानीय प्रजातियों के संरक्षण का यह सबसे बेहतर तरीका है। पीपलपड़ाव रेंज में काफी अच्छे परिणाम मिलने पर सलाहकार समिति ने भी इस पर मुहर लगाई है। मियावाकी तकनीक का इस्तेमाल अब बड़े पैमाने पर हो सकेगा।
दुनिया में तीन हजार जंगल इस तकनीक से विकसित
मियावाकी तकनीक का इस्तेमाल कर दुनिया भर में तीन हजार जंगलों को विकसित किया जा चुका है। जापान के अलावा अमेरिका, इटली, मलेशिया, पूर्वी एशिया में यह फार्मूला सफल रहा। भारत में बंगलूरू, भोपाल समेत अन्य जगहों पर भी यह तकनीक अहम साबित हुई। तेलंगाना सरकार ने इस विधि से तीन करोड़ से अधिक पेड़ लगाने की योजना बनाई है। कम खर्च में पौधा दस गुना तेजी से विकसित होता है।
मशहूर बॉटनिस्ट थे मियावाकी
जापान के डॉ. अकीरा मियावाकी दुनिया के मशहूर बॉटनिस्ट थे। तकनीक को विकसित करने के पीछे तर्क था कि इससे स्थानीय प्रजाति यानी जो पौधे उस क्षेत्र के जंगल की मिट्टी के अनुकूल हैं, उन्हें बढ़ावा मिलना चाहिए, ताकि वनभूमि की उर्वरा क्षमता में कमी न आ सके।
पौधे नहीं परिवार विकसित किया जाता है
वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी के प्रभारी मदन बिष्ट के मुताबिक, छोटे पौधे, झाड़ीनुमा प्रजाति, छोटे पेड़ और बड़े पेड़ प्रजाति चारों इस जंगल में शामिल होते हैं। वनभूमि को दो फीट तक खोदा जाता है। गोमूत्र, गोबर, गुड़ व चने की दाल के घोल से बनी जैविक खाद में पौधों को भिगोने के बाद उसे रोपा जाता है। जड़ें आपस में चिपकी होने के कारण एक दूसरे को पोषक तत्व भी मिलते हैं। लगाने के बाद ऊपर से हल्की मिट्टी और भूसा डालकर ढका जाता है, ताकि खरपतवार किसी हाल में न पनप सकें।
इन प्रजातियों को लगाया
मियावाकी तकनीक के जरिये दमली, हल्दू, सादन, सेमल, खैर, शीशम, पनियाला, गूलर, नीम, बीजासाल, पाडल, रोहणी, सर्पदंशी, आंवला, श्योनक, वरना, टिटमिस, बेड़ू आदि प्रजातियों के पेड़ विकसित किए जा चुके हैं।