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डॉ. बिष्ट ने जंगलों की नीलामी बंद करा थामी वनों की कटान

प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता व आंदोलनकारी डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट ने अपने सामाजिक जीवन की शुरुआत एक छात्रनेता के रूप में की, और फिर आम लोगों के हक के लिए लड़ने लगे।

By JagranEdited By: Published: Sun, 23 Sep 2018 01:18 AM (IST)Updated: Sun, 23 Sep 2018 01:18 AM (IST)
डॉ. बिष्ट ने जंगलों की नीलामी बंद करा थामी वनों की कटान
डॉ. बिष्ट ने जंगलों की नीलामी बंद करा थामी वनों की कटान

किशोर जोशी, नैनीताल : प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता व आंदोलनकारी डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट अपने कॉलेज के समय से ही काफी लोकप्रिय हो गए थे। वह 1972 में अल्मोड़ा के एसएसजे परिसर में हुए छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष बने थे, तब उन्हें 80 फीसद से अधिक वोट मिले थे। अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने पहली बार छात्रसंघ को छात्रों की समस्याओं से इतर सामाजिक मुद्दों से जोड़ा। डॉ. बिष्ट भले ही आजीवन गांवों के लिए संघर्षरत रहे, मगर उनका जन्म अल्मोड़ा शहर में हुआ था। 1973 में पिंडारी की यात्रा के दौरान पहली बार उन्होंने अपना मूल गांव खटलगांव ब्लॉक स्याल्दे देखा। उन्होंने वनों की कटान रोकने के लिए जंगलों की नीलामी की प्रथा बंद कराई थी।

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प्रसिद्ध इतिहासकार व हिमालय मामले के जानकार प्रो. शेखर पाठक ने दैनिक जागरण से उत्तराखंड लोकवाहिनी (उलोवा) के संस्थापक डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के संघर्ष व उनकी परिणति पर विचार साझा किए। बताया कि डॉ. बिष्ट 1974 में पहाड़ संस्था की ओर से आयोजित अस्कोट-आराकोट यात्रा में भी शामिल रहे। सितंबर-अक्टूबर 1974 में उन्होंनें उक्रांद के नेता विपिन त्रिपाठी, जसवंत बिष्ट के साथ वनों की नीलामी का विरोध किया। कुमाऊं वन बचाओ संघर्ष समिति भी बनाई। उनके जबरदस्त विरोध के चलते ही प्रशासन को यह प्रथा बंद करनी पड़ी। 25 मई 1977 को संघर्ष वाहिनी बन गई। कतिपय मतभेदों की वजह से 2001 में लोकवाहिनी बनाई गई।

डॉ. पाठक के अनुसार 1984 में डॉ. बिष्ट ने आंदोलनकारी पीसी तिवारी, सांसद प्रदीप टम्टा के साथ 'नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन चलाया, जबकि 1994 में अलग राज्य आंदोलन में सक्रिय रूप से जुडे़। राज्य बनने के बाद 2004 में लोकवाहिनी ने महिला मंच के साथ मिलकर स्थाई राजधानी के लिए गैरसैंण से देहरादून तक की पद यात्रा की। भूस्खलन प्रभावितों को तराई में बसाया डॉ. पाठक बताते हैं कि 1977 में पिथौरागढ़ जिले के तवाघाट में जबर्दस्त भूस्खलन हुआ तो प्रभावितों के हित में डॉ. बिष्ट ने आंदोलन चलाया। आंदोलन की परिणति यह रही कि तवाघाट के विस्थापितों को शासन ने सितारगंज के समीप जमीन दे दी। साथ ही गब्र्याग के आपदा पीडि़तों को भी जमीन देने पड़ी। डॉ. बिष्ट ने स्थानीय आंदोलनों को राष्ट्रीय संघर्ष के साथ जोड़ा। वह प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के आग्रह पर आम आदमी पार्टी से जुड़े और उत्तराखंड के समन्वयक बनाए गए। डॉ. बिष्ट का जाना पहाड़ की अपूरणीय क्षति उलोवा के संस्थापक रहे डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के निधन पर विभिन्न संगठनों व बुद्धिजीवी तबके में शोक की लहर दौड़ गई है। डॉ बिष्ट के साथी प्रो. शेखर पाठक, वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह, डॉ. उमा भट्ट, प्रदीप पांडे आदि ने अल्मोड़ा पहुंचकर अंतिम विदाई दी। कुलपति प्रो. डीके नौडि़याल, विधायक संजीव आर्य, पूर्व विधायक डॉ. एनएस जंतवाल, पूर्व पालिकाध्यक्ष श्याम नारायण, प्रकाश पांडे, कुमाऊं विवि कार्य परिषद सदस्य अरविंद पडियार, डॉ. सुरेश डालाकोटी, कूटा के अध्यक्ष प्रो. ललित तिवारी, सुचेतन साह, डॉ. सोहेल जावेद, दीपक कुमार आदि ने डॉ बिष्ट के निधन को पहाड़ की अपूरणीय क्षति करार दिया है।


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