कैसे हो प्रदेश का विकास : पहाड़ों के गांव में शिक्षक, डॉक्टर न सिग्नल NAINITAL NEWS
पलायन स्वभाविक प्रक्रिया है। पलायन के बाद भी उत्तराखंड में अभी करीब एक करोड़ की आबादी है। ग्रामीण आबादी अब पलायन न करे उसके लिए सरकार को गंभीर प्रयास करने होंगे।
किशोर जोशी, नैनीताल : गांव के स्कूल में शिक्षक नहीं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं, टेलीफोन-मोबाइल में सिग्नल नहीं, नल में पानी नहीं, बिजली सप्लाई अनियमित आदि वजहों से पहाड़ के गांव के लोग कस्बों या देहरादून, हल्द्वानी, टनकपुर-खटीमा में पलायन कर रहे हैं। पलायन स्वभाविक प्रक्रिया है। पलायन के बाद भी उत्तराखंड में अभी करीब एक करोड़ की आबादी है। ग्रामीण आबादी अब पलायन न करे, उसके लिए सरकार को गंभीर प्रयास करने होंगे। गांव में पैथालॉजी, जंगली जानवरों और लैंटाना घास पर नियंत्रण, वन विभाग व कृषि विभाग परस्पर सहयोग करे तो पलायन न केवल थमेगा, बल्कि श्राद्ध, बरसी या लोक देवता को पूजने हर साल गांव आने वाले प्रवासी भी फिर से गांव में बसने की सोच सकते हैं। खेती में तकनीकी का उपयोग, जैविक खेती को प्रोत्साहन, जंगलों पर अधिकार बढ़ाने, ग्रामीण सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन से भी पलायन में कमी आएगी।
प्रसिद्ध इतिहासकार और पहाड़ संस्था के प्रो. शेखर पाठक ने पलायन पर जागरण के साथ विस्तृत बातचीत की। उन्होंने कहा सरकार को पलायन आयोग के बजाय रेस्टोरेशन आयोग बनाना चाहिए। पलायन तो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 से पहले से हो रहा है। 1815 के बाद फौज व रेल में भर्ती होने लगी। पहली पीढ़ी के कुली व सिपाही अगली पीढ़ी में आर्थिक रूप से समृद्ध हो गए। पलायन को सकारात्मक नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। पलायन नहीं होता तो भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी नहीं होते। पिथौरागढ़ की जमीन बेचकर खटीमा में जमीन खरीद रहे हैं। दिल्ली में ही 15-20 लाख जबकि पूरे देश में 40-45 लाख उत्तराखंडी रह रहे हैं। मुंबई में झुग्गियों के साथ ही कुल दस लाख उत्तराखंडी हैं। अमेरिका के सिलिकॉन वैली में उत्तराखंड के लोगों के उद्योग हैं। 1967 में वनराजि, शौका, थारू, बोक्सा, जौनसारी जातियों को शिक्षा व रोजगार में आरक्षण के बाद सीमावर्ती इलाकों से पलायन बढ़ा। मल्ला दानपुर जैसे इलाकों में पलायन कम है। तिब्बत के साथ व्यापार बंद होने से सीमावर्ती इलाकों में पलायन बढ़ रहा है। दो साल पहले काठमांडू की संस्था ईसी मोड द्वारा सर्वे किया गया था। पिथौरागढ़ जिले के सर्वे में निष्कर्ष निकला कि पहाड़ के गांवों में सिर्फ दलित, दरिद्र या कम शिक्षित स्वर्ण व देवता ही रह गए हैं। जिनके घर में आर्थिक समृद्धि आई उसने ब्लॉक, जिला मुख्यालय में मैदानी इलाकों में मकान बना दिया। पहले महिला या बालिका शिक्षा कम थी। अब महिला शिक्षा बढ़ी है तो जॉब के लिए स्वाभाविक तौर पर पलायन कर रही हैं। गांव में उद्यमिता को बढ़ाना होगा। पहाड़ के लोगों को दूसरों के बजाय खुद को उद्यम चलाने की मानसिकता बनानी होगी। सरकार को समझदारी दिखानी होगी। सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य समेत बुनियादी सुविधाएं, स्वरोजगार योजनाओं का सही क्रियान्वयन ही पलायन रोक सकता है।
जंगली जानवरों से खेती बचाओ, पर्यटन के प्रमोशन से थमेगा पलायन
पलायन की वजह एक नहीं तमाम हैं। सिंचाई वाली भूमि जंगली-जानवरों आतंक की वजह से बंजर हो गई है। सोमेश्वर जैसी घाटी में हुड़किया बोल अस्तित्व के लिए जूझ रही है। कौसानी में डेढ़ लाख कीमत के पॉलीहाउस के अंदर बंदरों ने सब्जियां चौपट की हैं। पर्यटन व रोजगार का क्षेत्र बेहाल है। पर्यटन विभाग को पर्यटन के प्रमोशन को लेकर कोई चिंता नहीं हैं। लद्दाख की तरह उत्तराखंड में स्नो लैपर्ड है, पर किसी को जानकारी नहीं है। चीन में हैरिटेज मानचित्र बना है। हैरिटेज बिल्डिंग के लिए टिकट लिया जाता है, नैनीताल में राज्य बनने के बाद शुरुआत हुई थी, लेकिन अब फिर वहीं हाल हैं। अंतरराष्टï्रीय छायाकार पदमश्री अनूप साह ने पलायन पर जागरण से बातचीत की। उन्होंने कहा कि पर्यटन गाइड तक प्रशिक्षित नहीं हैं। हिमाचल की तर्ज पर लोकल प्रोडक्ट को प्रमोट किया जाना चाहिए। जड़ी बूटी आधारित उद्योग लगाए जाएं। नक्कासी वाले मकानों को हैरिटेज के रूप में प्रचारित कर ग्रामीण पर्यटन बढ़ाया जा सकता है।
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