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सरकारें बदलीं पर नहीं बदली कूड़ा बटोरने वालों की किस्मत, वोट देने को मानते हैं धर्म

कूड़ा बीनने वालों ने वोट तो हर बार दिया है इस बार भी देंगे। परिवार में कमाने वाला कोई नहीं है इसलिए गरीबी ने नालों में रोज बेहतर दगी जिंतलाशी जा रही है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 06:59 PM (IST)Updated: Tue, 19 Mar 2019 06:59 PM (IST)
सरकारें बदलीं पर नहीं बदली कूड़ा बटोरने वालों की किस्मत, वोट देने को मानते हैं धर्म
सरकारें बदलीं पर नहीं बदली कूड़ा बटोरने वालों की किस्मत, वोट देने को मानते हैं धर्म

नैनीताल, जेएनएन : मौसम खराब है। सुबह से घर से निकले हैं। नालों में जैसे-तैसे घुसकर प्लास्टिक, गत्ते, कपड़ों को चुन-चुन कर बड़ा ढेर जमा किया है। अब चिंता है कि यह ढेर कैसे घर पहुंचे, जिसे बेचकर खुद की तथा बच्चों की परवरिश हो सके। तमाम झंझावतों के बीच लोकतंत्र के प्रति इतनी आस्था कि वोट तो हर बार दिया है, इस बार भी देंगे। परिवार में कमाने वाला कोई नहीं है, इसलिए गरीबी ने नालों में रोज बेहतर जिंदगी तलाशी जा रही है।

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कोलकाता से 25 किमी दूर सिवड़ी की मूल निवासी 50 वर्षीय मशकूरा पत्नी रुक शाहजहां नैनीताल के तल्लीताल बूचड़खाना क्षेत्र में रहती हैं। बच्चे छोटे थे तो पति का निधन हो गया। तब से कूड़े में बच्चों की बेहतर जिंदगी के सपने बुने जा रहे हैं। मुरादाबाद से तीन साल पहले आई हैं। छह बेटियां व दो बेटे हैं। चार बेटियों की शादी हो चुकी है। कूड़ा बीनने उनके साथ 15 वर्षीय बेटी रजीना भी आई है। वह गरीबी की वजह से स्कूल नहीं जा सकी है। सड़क से लग्जरी वाहनों की आवाजाही, पर्यटक जोड़ों की चहलकदमी, चकाचौंध के बीच मशकूरा पसीने से तरबतर है। सुबह आठ बजे ही कूड़े-कचरे से बच्चों की परवरिश के लिए प्लास्टिक आदि की खोज में निकली है। दैनिक जागरण के सवाल पर वह बताती हैं, '20 साल हो गए हैं रोज गंदे नालों से प्लास्टिक व अन्य कचरा बीनते-बीनते। नैनीताल की पहाडिय़ों पर बने नालों में दम फूलने लगता है, पर गरीबी है कि काम तो करना है। महीने में चार-पांच हजार कमाई हो जाती है।' चुनाव के बारे में पूछा तो बोलीं, 'जानकारी है। आठ बार वोट दे चुकी हूं। राजनीतिक दलों के झूठे वादों से वाकिफ भी हूं। फिर भी इस बार भी वोट तो हर हाल में दूंगी, यह संकल्प है। वह कहती हैं, 'गरीब को कौन पूछता है। पैसा होता तो इस गंदे काम को नहीं करती। किसी तरह बच्चे ठीक ठाक हो जाएं, ताकि जिल्लत भरी इस जिंदगी से मुक्ति मिले।' यह स्थिति अकेले मशकूरा की नहीं है। शहर में ऐसे 30-40 लोग हैं, जो घरों से नालों में फेंके गए या पालिका के डस्टबिन से प्लास्टिक या बिकाऊ माल तलाशते हैं।

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