'शायर व शायरी का एक ही मजहब इंसानियत'
मनीष कुमार, हरिद्वार '¨हदू,-मुस्लिम नहीं, हवा हूं मैं, किसने देखा मुझे खुदा हूं मैं'। जैसे
जागरण संवाददाता, हरिद्वार '¨हदू,-मुस्लिम नहीं, हवा हूं मैं, किसने देखा मुझे खुदा हूं मैं'। जैसे हवा का कोई मजहब नहीं होता उसी तरह शायर का भी कोई मजहब नहीं होता। उनका एक ही मजहब है इंसानियत।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल में दिल्ली से आए नामचीन शायर आरएस अरोड़ा उर्फ दिलदार देहलवी ने अपनी गजल 'जानवर, वहशी, द¨रदे हर तरफ हैं, अब जनाजा उठ चुका है आदमी का'..की दो पंक्तियों से साफ किया कि कुछ मतलबपरस्त इंसानों को बांट रहे हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने की जरूरत है। कहा कि उर्दू शायरी को किसी विधा से चुनौती नहीं है। इनके चाहने वाले पहले भी थे और आज भी हैं। वजह उर्दू जुबान में मिठास है, तहजीब है। यूं कहें तो अदब वाली जुबान है। पहले इश्क और मोहब्बत पर शायरी होती थी, लेकिन अब इंसानी रिश्तों पर लिखी जाती है। बताया कि उर्दू जुबान से उन्हें मुहब्बत है। इसलिए वह उर्दू कवि सम्मेलन और मुशायरों में भाग लेकर इंसानी रिश्तों को मजबूत करने का काम कर रहे हैं। उर्दू शायरी इशारों में कही जाती है, इसलिए यह पसंद की जाती है कि इसमें लफ्जों के मायने होते हैं, जबकि फिल्मी गानों में तुकबंदी होती है। बताया कि उनकी कविता 'सूरज का ख्वाब है तो ¨जदगी संवर गई' ¨हदू और उर्दू दोनों भाषा में है। इसके अलावा गजल संग्रह भी है।