संक्रमण से बचाएगी आइआइटी रुड़की की नई तकनीक, ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी में भी होगी फायदेमंद
आइआइटी रुड़की के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी विशेष तकनीक ईजाद की है जो शरीर के किसी खास हिस्से में लंबी अवधि के लिए दवा पहुंचाने में मददगार होगी।
रुड़की, रीना डंडरियाल। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) रुड़की के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी विशेष तकनीक ईजाद की है, जो शरीर के किसी खास हिस्से में लंबी अवधि के लिए दवा पहुंचाने में मददगार होगी। यह तकनीक ज्वाइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी में भी फायदेमंद होगी। क्योंकि, इसी समस्या में सर्जरी के बाद अक्सर संक्रमण का खतरा बना रहता है।
आइआइटी रुड़की की शोधकर्ता प्रमुख प्रोफेसर देवरूपा लाहिरी ने बताया कि हड्डियों के क्षतिग्रस्त अथवा रोगग्रस्त होने पर आर्थोपेडिक सर्जरी में बायोमेडिकल ग्रेड इम्प्लांट लगाने का काफी चलन है। हालांकि, इस तरह की सर्जरी में इम्प्लांट वाले हिस्से में बैक्टीरिया का संक्रमण एक आम समस्या है। दरअसल, हड्डी इम्प्लांट के दस फीसद मामले बीमारियों की वजह से व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसे में इस समस्या को दूर करने के लिए दवाइयों की उच्च खुराक दी जाती है।
इसी को देखते हुए संस्थान के शोधकर्ताओं ने बायोमेडिकल इम्प्लांट लगाने के बाद की इस समस्या को दूर करने के लिए एक नई पद्धति विकसित की है। इससे इम्प्लांट वाले हिस्से में बैक्टीरिया संक्रमण का खतरा न्यूनतम होगा। इसके तहत मेटलिक इम्प्लांट की सतह में परिवर्तन किया जाएगा और उस पर बैक्टीरिया रोकने की दवा लगा दी जाएगी। दवा इम्प्लांट वाले हिस्से में एक सप्ताह या इससे अधिक समय तक धीरे-धीरे पहुंचती रहेगी। जिससे किसी प्रकार के संक्रमण का खतरा नहीं रहेगा। प्रो. देवरूपा ने बताया कि यह दवा बायोमेडिकल ग्रेड टाइटेनियम एलॉय मेटल की सतह पर हाइड्रॉक्सी एपेटाइट (एचए) के माइक्रो-लेयर में रखी जाएगी।
एचए में दवा भरने के लिए छिद्र बने हैं। साथ ही इस पद्धति में हड्डी और इम्प्लांट का जुड़ना भी आसान होगा। बताया कि परीक्षण अगले चरण में है और पॉलीमर में दवाइयों का मिश्रण देने व दवा निकलने की अवधि बढ़ाकर एक महीना करने के लिए टीम जुटी है। प्रो. देवरूपा के अनुसार यह भारतीय पेटेंट बनने वाला है। यह इनोवेशन प्रो.पार्थ रॉय व उनके ग्रुप और प्रो. अरविंद अग्रवाल एवं फ्लोरिडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी अमेरिका में उनके ग्रुप के सहयोग से किया गया है। डॉ. मनोज कुमार और कनीके राजेश भी टीम में शामिल हैं।
बैक्टीरिया को बढ़ने से रोकती है सुरक्षा परत
शोधकर्ताओं ने बताया कि टाइटेनियम मेटल एलॉय शीट पर प्लाज्मा स्प्रे तकनीक से हाइड्रॉक्सी एपेटाइट की 200-माइक्रोन मोटी परत बनाई गई। एचए एक जैव-अनुकूल मटेरियल है। जिसकी हड्डी की तरह संरचना है और यह सिरामिक इम्प्लांट में इस्तेमाल होता है। इस पद्धति में एक प्रचलित दवा जेंटामाइसीन को बायोडिग्रेडेबल पॉलीमर चिटोसन के साथ मिलाया जाता है। इसके बाद दवायुक्त पॉलीमर लिक्विड को निर्वात में एचए के छिद्रों में भर दिया जाता है। चिटोसन धीरे-धीरे इम्प्लांट वाले हिस्से में गल जाता है। शरीर के विभिन्न द्रवों के प्रभाव में सहज ढंग से ऐसा होने के कारण दवा सही जगह पहुंच जाती है। यह दवा सुरक्षा परत बनाकर बैक्टीरिया को बढ़ने से रोकती है।
शोधकर्ताओं ने पॉलीमर-एचए के तालमेल में एक अन्य लाभ भी देखा है। इससे इम्प्लांट की चोट सहने की क्षमता 42 फीसद तक बढ़ गई। परीक्षण से सामने आया कि इम्प्लांट मटेरियल में परिवर्तन से एस औरियस बैक्टीरिया रोकने की उत्कृष्ट क्षमता दिखी। आर्थोपेडिक सर्जरी में इस बैक्टीरिया की वजह से इम्प्लांट संबंधी संक्रमण पाए गए।
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इतना ही नहीं, मानव ऑस्टियोब्लास्ट सेल्स पर हुए परीक्षण में भी यह सामने आया कि एचए ने परिवर्तित सतह के साथ जैव अनुकूलता बढ़ा दी। इससे हड्डी और इम्प्लांट को आपस में जोड़कर हड्डी के नवनिर्माण को बढ़ावा दिया जाता है। साथ ही किसी खास हिस्से में कम मात्र में धीरे-धीरे दवा पहुंचाने से पूरे शरीर में दवा का विषैलापन भी रोका जा सकता है। नतीजा, जख्म भरने की पूरी अवधि तक बैक्टीरिया संक्रमण का खतरा नहीं रहता।
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