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पारे की उछाल के साथ जंगलों में आग की चिंता, फिर आसमान पर टिकी निगाह

पारे की उछाल के साथ ही 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जंगलों की आग से सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ने लगी है। गुजरे 10 दिनों के वक्फे में ही यहां आग की नौ घटनाएं हुई।

By Bhanu Prakash SharmaEdited By: Published: Sat, 11 Apr 2020 12:11 PM (IST)Updated: Sat, 11 Apr 2020 12:11 PM (IST)
पारे की उछाल के साथ जंगलों में आग की चिंता, फिर आसमान पर टिकी निगाह
पारे की उछाल के साथ जंगलों में आग की चिंता, फिर आसमान पर टिकी निगाह

देहारदून, केदार दत्त। उत्तराखंड में डेढ़ माह से सुकून दे रहे मौसम ने अब ग्रीष्म की रवानी पकड़ ली है। पारे की उछाल के साथ ही 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जंगलों की आग से सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ने लगी है। गुजरे 10 दिनों के वक्फे में ही यहां जंगलों में आग की नौ घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिनमें साढ़े छह हेक्टेयर जंगल तबाह हुआ। 

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यही नहीं, जंगल की आग की ने दो महिलाओं की जिंदगी लील ली, जबकि एक घायल हुई है। ऐसे में वनों के साथ ही आमजन की सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। हालांकि, वन महकमे ने 15 फरवरी को फायर सीजन शुरू होने पर जंगल की आग से निबटने को पूरी तैयारियों का दावा किया था, लेकिन आग की घटनाओं ने तैयारियों की पोल भी खोलकर रख दी। सूरतेहाल, वन महकमे की निगाहें बारिश के लिए फिर आसमान की ओर टिक गई हैं।

पिरुल ने बढाई मुश्किलें 

राज्य के जंगलों में आग के फैलाव का बड़ा कारण हैं चीड़ की पत्तियां, जिन्हें स्थानीय भाषा में पिरुल कहते हैं। बागेश्वर के जंगल में हाल में हुई जिस घटना ने दो महिलाओं की जान ली, वहां भी पिरुल के कारण ही आग फैली थी। दरअसल, राज्य के कुल वन क्षेत्र के 16 फीसद हिस्से में चीड़ का फैलाव हो चुका है। 

चीड़ से न सिर्फ ज्वलनशील पदार्थ लीसा (रेजिन) निकलता है, बल्कि इसकी पत्तियां सूखने पर आग फैलाने में सहायक होती हैं। साथ ही पिरुल में अम्लीय गुण होने के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है। इसे देखते हुए चीड़ का रोपण भले ही वर्षों पहले बंद कर दिया गया हो, लेकिन प्राकृतिक रूप से इसका फैलाव निरंतर हो रहा है। हर बार की तरह इस मर्तबा भी पिरूल परेशानी का सबब बनने जा रहा है। लिहाजा, पिरुल बहुल क्षेत्रों पर विशेष निगाह रखने की आवश्यकता है।

एक चुनौती यह भी 

वनों की आग तो चुनौती है ही, अब जंगलों में रह रहे बेजुबानों पर भी नए खतरे ने आहट दे दी है। अमेरिका के ब्रोनेक्स चिड़ियाघर में बाघ में कोरोना संक्रमण की आई खबरों के बाद देशभर के संरक्षित-आरक्षित क्षेत्रों में अलर्ट जारी किया गया है। इस क्रम में उत्तराखंड में भी दोनों टाइगर रिजर्व, छह नेशनल पार्क, सात अभयारण्य, चार कंजर्वेशन रिजर्व के साथ ही चिड़ियाघरों, रेसक्यू सेंटरों में अलर्ट है। सभी संरक्षित क्षेत्रों में विशेष सतर्कता बरती जा रही है। 

संरक्षित क्षेत्रों में सेवाएं देने वाले पालतू हाथियों के लिए बाहर से आने वाले चारे पर रोक लगाई गई है तो महावतों से भी मिलने पर पाबंदी है। जंगलों में विशेष गश्त चल रही है। कोरोना संक्रमण की रोकथाम में सहयोग दे रहे वन कर्मियों को वापस बुलाया गया है। बावजूद इसके चुनौतियां कम नहीं। अब ये विभाग पर है कि वह दोहरी चुनौती से कैसे निबटता है और कैसे प्रदेश के जंगलों को आग से सुरक्षित रखता है।

प्रतिवर्ष वन संपदा खाक

जैवविविधता के लिए मशहूर उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग हर साल बड़े पैमाने पर वन संपदा के तबाह होने का सबब बन रही है। बीते एक दशक के आंकड़ों पर ही गौर करें तो जंगलों में प्रतिवर्ष औसतन दो हजार हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र झुलस रहा है। इसमें पेड़ों, प्लांटेशन, जड़ी-बूटियों के साथ ही पारिस्थितिकीय संतुलन में अहम भूमिका निभाने वाले छोटे जीवों को भारी क्षति पहुंच रही है। 

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2016 में तो जंगलों की आग गांवों, घरों की दहलीज तक पहुंच गई थी और तब इस पर काबू पाने के लिए सेना तक की मदद लेनी पड़ी थी। इस मर्तबा, फरवरी से लेकर मार्च आखिर तक निरंतर वर्षा और बर्फबारी के चलते सुकून बना रहा, लेकिन अब जंगल धधकने लगे हैं। पिछले अनुभवों को देखें तो आग की अधिक घटनाएं अप्रैल से लेकर जून तक होती हैं। लिहाजा, इस वक्फे में प्रभावी कदम उठाए जाने की दरकार है।

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