इस हौसले को सेल्यूट, जब उच्च शिक्षा प्रमुख सचिव आनंद बर्द्धन बन बैठे गुरुजी
उच्च शिक्षा प्रमुख सचिव आनंद बर्द्धन गुरुजी बन बैठे। सचिवालय में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऑन सभी डिग्री कॉलेजों के मुखिया क्लास में मौजूद। नजरिया बदला कोई डांट-डपट नहीं।
देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। कमियों का रोना रोने की मानवीय प्रवृत्ति सरकारी तंत्र में विकृति बन चुकी है। कम संसाधन, बजट नहीं। बताइये, कैसे करें अच्छा काम। 19 साल से यही रोना। आंसुओं से इतर भी इक सलोनी और साहसी दुनिया बसती है। यह पर्दा तब उठा, जब खुद उच्च शिक्षा प्रमुख सचिव आनंद बर्द्धन गुरुजी बन बैठे। सचिवालय में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऑन, राज्य के सभी डिग्री कॉलेजों के मुखिया क्लास में मौजूद। नजरिया बदला, कोई डांट-डपट नहीं। प्राचार्यों ने बेझिझक अनुभवों, नई पहल का आदान-प्रदान किया। अरे ये क्या! संसाधनों की कमी का रुदाली रुदन गायब। गुरुजी भी चौंके। प्राचार्यों ने बताया, छात्र नहीं आने की समस्या थी, तो उनके अभिभावकों को एसएमएस भेजे जाने लगे हैं। अब छात्र आ रहे हैं। अटेंडेंस अपडेट, लाइब्रेरी में पुस्तकें, कॅरियर काउंसिलिंग, नेट कनेक्टिविटी जैसी समस्याओं का निदान कुछ करने का जज्बा रखने वालों ने थोड़ी सी मशक्कत से ही ढूंढ लिया। ऐसे हौसलों को सेल्यूट।
दिन बहुरने की उम्मीद
सरकारी डिग्री कॉलेजों में खोला गया व्यावसायिक कोर्स खूब चला है तो वह है बीएड। रोजगारपरक कोर्स को बढ़ावा देने को हो-हल्ला मचा तो 17 कॉलेजों में सेल्फ फाइनेंस मोड में बीएड खोला गया। प्रयोग अच्छा रहा, चल निकला। नहीं चली तो उन शिक्षकों की तकदीर, जिन्हें कोर्स चलाने का दारोमदार सौंपा गया। कई साल बीत गए, कॉलेजों में शिक्षकों व शिक्षणेत्तर कार्मिकों के स्टाफ का न तो वेतन बढ़ा और न ही मिली आकस्मिक या मेडिकल अवकाश की सुविधा। कोई सुने तो कैसे। कॉलेज प्राचार्यों को सेल्फ फाइनेंस का धन का सुहा रहा है, लेकिन कार्मिकों की सुध लेने का जिम्मा ऊपर वालों के भरोसे छोड़ दिया। ऊपर वालों की हालत ये है कि कॉलेजों के लिए गठित सोसायटी की बैठक 2016 यानी चार साल से हुई नहीं। किसी तरह उच्च शिक्षा राज्यमंत्री डॉ धन सिंह रावत के दरबार तक मामला पहुंचा। निर्देश जारी हुए, बैठक का इंतजार है।
नसीहत देने की मजबूरी
सरकारी तंत्र में योग्यता और अयोग्यता का मुद्दा काम का न भी हो, बहस का मुद्दा होता ही है। हाल-फिलहाल मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी शिक्षा महकमे को योग्य अधिकारियों की टीम गठित करने की नसीहत देनी पड़ गई। अधिकारियों से लबालब महकमा, लेकिन कायदे-कानून दरकिनार करने की अद्भुत परंपरा। शिक्षकों की बड़े पैमाने पर भर्ती कर दी, लेकिन नियुक्ति से पहले प्रमाणपत्रों की जांच खानापूरी कर निपटा दी। नतीजतन एसआइटी जांच में दनादन फर्जी प्रमाणपत्र पकड़े जा रहे हैं। फर्जीवाड़ा पकड़ा तो शुरू हुई जान बचाने की जुगत। फिर आनन-फानन में कर डाले शिक्षकों की बर्खास्तगी के आदेश। भले मानुष, बर्खास्त करने से आरोपितों को नोटिस तो थमा देते। जवाब तो मंगा लेते। तब लेते एक्शन। जब ऐसा नहीं हुआ तो कोर्ट ने लगा दी फटकार। अटक गई बर्खास्तगी की कार्रवाई। मामला एक नहीं, सिर्फ नमूना है। तब ही सीएम को भी नसीहत देने को मजबूर होना पड़ा।
जान बची तो लाखों..
प्रदेश में निजी स्कूलों को दरियादिली से अनुदान नहीं बंटेगा। तीन साल से ये सरकारी फरमान लागू है। कमाल देखिए। गुपचुप तरीके से करीब डेढ़ दर्जन स्कूलों को बांट दिया अनुदान। कुछ दिनों बाद फिर नए मामलों की फाइल आगे बढ़ा दी। इस बार ये मामला सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास पहुंचा। शिक्षा महकमे के आला अधिकारियों के साथ बैठक हुई, सीएम ने फाइल देखी, माथा ठनका।
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मानक देखे, पूरे छब्बीस। आदेश ताक पर रखकर बंट रहा था अनुदान। तुरंत आवेदन के नए प्रस्तावों को पर रोक लगा दी। साथ में पहले बांटे जा चुके अनुदान की जांच के आदेश दिए। नपने का खतरा मंडराया तो अफसरों ने दनादन फाइलें पलटीं। फाइलों पर अनुदान धड़ाधड़ बंटा, आदेश भी हुए। बजट जारी नहीं हुआ। बजट न देना नाफरमानी से कम नहीं है, लेकिन अनुदान बंटता तो खैर नहीं थी। दान का पुण्य नहीं मिला, शुक्र है जान तो बच गई।
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