सत्ता के गलियारे से: आखिर में चार कंधों की ही जरूरत
अंदरूनी कलह थामने को कांग्रेस ने पंजाब के बाद उत्तराखंड में भी अध्यक्ष के साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला अपनाया लेकिन भाजपा ने इसकी जिस तरह व्याख्या की उसे कांग्रेस पचा नहीं पाई। पिछले दिनों भाजपा के प्रदेश प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम देहरादून में थे।
विकास धूलिया, देहरादून। अंदरूनी कलह थामने को कांग्रेस ने पंजाब के बाद उत्तराखंड में भी अध्यक्ष के साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष का फार्मूला अपनाया, लेकिन भाजपा ने इसकी जिस तरह व्याख्या की, उसे कांग्रेस पचा नहीं पाई। पिछले दिनों भाजपा के प्रदेश प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम देहरादून में थे, मीडिया ने कांग्रेस के इस फार्मूले पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। गौतम तुरंत बोल पड़े, किसी को भी अंत में चार कंधों की ही जरूरत पड़ती है। लगता है कांग्रेस ने भी इंतजाम कर लिया है। हालांकि यह तंज ही था और सियासी माहौल के हिसाब से काफी सटीक भी, क्योंकि गौतम का कहने का आशय यही था कि कांग्रेस उत्तराखंड में अंतिम दिन गिन रही है। भला कांग्रेस के नए नवेले अध्यक्ष गणेश गोदियाल कैसे चुप रह जाते। जवाब में बोले, चार कंधे सभी को चाहिए। भाजपा को यह जान लेना चाहिए कि अब उसके भी जाने के दिन नजदीक आ गए हैं।
अकेले साइकिल सवार ने अब थामा हाथ
उत्तराखंड को अलग राज्य बने 20 साल हो चुके, मगर समाजवादी पार्टी आज तक विधानसभा में खाता नहीं खोल पाई। राज्य आंदोलन के दौरान का मुजफ्फरनगर गोली कांड आज भी सपा के लिए बुरे सपने के समान है। अलग राज्य बनने के बाद कोई भविष्य न देख सपा के कई नेता अन्य दलों में चले गए। इस सबके बीच उत्तराखंड में सपा की एकमात्र चुनावी सफलता 2004 के लोकसभा चुनाव में हरिद्वार से राजेंद्र बाडी की जीत रही। अफसोस सपा की साइकिल के अकेले सवार राजेंद्र बाडी ने भी अब कांग्रेस का हाथ थाम लिया। सूबे की सियासत में बाडी की कोई भूमिका अब तक तो दिखी नहीं, मगर पालाबदल कर उन्होंने कुछ सुर्खियां जरूर हासिल कर लीं। वैसे बाडी कांग्रेस में आने से पहले भाजपा समेत कई दलों का गलियारा नाप चुके हैं। अब समझ आया, कांग्रेस में कोई गर्मजोशी एक पूर्व सांसद के आने से क्यों नहीं झलकी।
पिछला प्रदर्शन ही बन गया चुनावी कसौटी
उत्तराखंड में भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में 70 में से 57 सीटें जीतने में कामयाब रही, मगर अब यही प्रदर्शन पार्टी के लिए चुनावी कसौटी बन गया है। पार्टी छह-सात महीने बाद होने वाले चुनाव को लेकर कोई कोताही नहीं बरत रही है। यही वजह है कि छोटा सूबा होने के बावजूद भाजपा नेतृत्व से इसे पूरी तवज्जो मिल रही है। पार्टी चुनावी रोडमैप तैयार कर चुकी है। मंत्री, विधायकों के साथ संगठन पूरी तरह मैदान में उतर गया है। सत्ता के गलियारों में चर्चा है कि परफार्मेंस के पैमाने पर खरा न उतरने वाले कई मौजूदा विधायकों को पार्टी इस बार दरकिनार कर सकती है। इसका असर यह दिख रहा है कि अब तमाम विधायक अपने-अपने क्षेत्रों में डेरा डालकर बैठ गए हैं। इनमें कई मंत्री भी शामिल हैं। इसे चुनावी रणनीति का हिस्सा कहें फिर टिकट पाने की जुगत, लेकिन मतदाता खुश हैं नेताजी को अपने बीच पाकर।
चुनावी साल में बस बदलाव ही बदलाव
सूबे में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव हैं। चुनाव से पहले बदलाव अमूमन होते ही हैं, लेकिन उत्तराखंड तो रिकार्ड तोड़ने पर ही आमादा है। पांच महीने में त्रिवेंद्र, तीरथ के बाद अब धामी के रूप में तीसरे मुख्यमंत्री सरकार की बागडोर संभाल रहे हैं। सत्तारूढ़ भाजपा के संगठन के मुखिया बंशीधर भगत के बाद अब मदन कौशिक हैं। अब भला कांग्रेस कैसे पीछे रहती, उसने भी बदलाव की झड़ी लगा दी। प्रदेश संगठन की कमान प्रीतम सिंह से लेकर गणेश गोदियाल को सौंप दी, तो फेस सेविंग फार्मूले के तहत प्रीतम को नेता प्रतिपक्ष का दायित्व दे दिया। रही-सही कसर धामी ने नौकरशाहों को ताश के पत्तों की मानिंद फेट कर पूरी कर दी। मुख्य सचिव ओमप्रकाश को दूसरे ही दिन बदल डाला और फिर लगभग 60 नौकरशाहों को इधर-उधर कर दिया। लगता है उत्तराखंड में सब कुछ बदल डालने वाला जुमला कारगर साबित हो रहा है।
यह भी पढ़ें- उत्तराखंड: जागेश्वर धाम प्रकरण से बढ़ीं भाजपा की मुश्किलें, अब केंद्रीय नेतृत्व को कराएंगे अवगत