उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों पर रहेगी विशेष नजर, हर साल 23.66 लाख मीट्रिक टन पत्तियां बनती हैं आग का सबब
Uttarakhand Forest Fire उत्तराखंड में जंगलों में आग लगने की एक बड़ी वजह चीड़ के पेड़ भी हैं। यहां हर साल 23.66 लाख मीट्रिक टन पत्तियां आग का सबब बनती हैं। इसे देखते हुए विभाग ने विशेष कार्ययोजना बनाई है।
राज्य ब्यूरो, देहरादून। जंगलों की आग की रोकथाम को कमर कस चुके वन विभाग की चिंता राज्य के लगभग 16 प्रतिशत हिस्से में फैले चीड़ के जंगलों ने अधिक बढ़ा दी है। कारण है चीड़ वनों से हर साल गिरने वाली चीड़ की 23.66 लाख मीट्रिक टन पत्तियां (पिरुल), जो वनों में आग के फैलाव का सबब बनती हैं। इसे देखते हुए विभाग ने विशेष कार्ययोजना बनाई है। मुख्य वन संरक्षक (वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन) निशांत वर्मा के अनुसार चीड़ वनों की संवेदनशीलता को देखते हुए इसी हिसाब से वनकर्मियों की तैनाती गई है। आवश्यकता पड़ने पर फायर वाचरों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी।
वन विभाग की ओर से पिछले 10 वर्षों में हुई जंगल की आग की घटनाओं के आधार पर कराए गए अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से झुलस रहा है। इसमें भी सर्वाधिक क्षेत्र वह है, जहां चीड़ (चिर पाइन) के जंगल हैं। यही चिंता इस बार भी सता रही है। फरवरी आखिर से चीड़ की पत्तियां गिरनी शुरू हो जाती हैं, जिन्हें स्थानीय बोली में पिरुल कहा जाता है। चीड़ वनों में पिरुल की परत बिछ जाती है, जो पारे के उछाल भरने पर जंगलों में आग के फैलाव का बड़ा कारण बनती है। यही नहीं, अम्लीय गुण होने के कारण पिरुल को भूमि के लिए ठीक नहीं माना जाता। इसके अलावा जमीन में पिरुल जमा होने से न तो दूसरी वनस्पतियां उग पाती हैं और न संबंधित क्षेत्र में बारिश का पानी धरती में समा पाता है।
इस परिदृश्य को देखते हुए वनों की आग से सुरक्षा के मद्देनजर वन विभाग की नजर चीड़ के वनों पर अधिक रहेगी। मुख्य वन संरक्षक निशांत वर्मा ने बताया कि चीड़ वनों में अधिक सावधानी बरतना समय की मांग है और इसी के हिसाब से कार्ययोजना बनाई गई है। चीड़ बहुल क्षेत्रों में कू्र-स्टेशनों की संख्या बढ़ाई गई है। यह भी सुनिश्चित किया गया है कि ऐसे क्षेत्रों में फायर अलर्ट तत्काल वनकर्मियों तक पहुंचे। आग पर नियंत्रण के लिए स्थानीय ग्रामीणों और वन पंचायतों का सक्रिय सहयोग भी लिया जाएगा।
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