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भाजपा: वादा किया तो वर्षों से निभाया भी

Uttarakhand Vidhan Sabha Election 2022 कांग्रेसी मूल के नेताओं के साथ किया गया वादा भाजपा ने इस विधानसभा चुनाव में भी बखूबी निभाया है। कुल 70 में से एक दर्जन से अधिक सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस पृष्ठभूमि के नेताओं पूर्व विधायकों को इस बार भी टिकट दिया है।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Fri, 28 Jan 2022 11:56 AM (IST)Updated: Fri, 28 Jan 2022 11:56 AM (IST)
भाजपा: वादा किया तो वर्षों से निभाया भी
Uttarakhand Vidhan Sabha Election 2022: भाजपा: वादा किया तो वर्षों से निभाया भी।

विकास धूलिया, देहरादून। Uttarakhand Vidhan Sabha Election 2022 वर्षों गुजर गए, मगर कांग्रेस से दामन झटक शरण में आए कांग्रेसी मूल के नेताओं के साथ किया गया वादा भाजपा ने इस विधानसभा चुनाव में भी बखूबी निभाया है। कुल 70 में से एक दर्जन से अधिक सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस पृष्ठभूमि के नेताओं पूर्व विधायकों को इस बार भी टिकट दिया है। इनमें वे दो पूर्व विधायक भी शामिल हैं, जो पिछला चुनाव हार गए थे। इस राजनीतिक उदारता को भाजपा ने इस चुनाव में दो कदम और आगे बढ़ा दिया। ऐन चुनाव से पहले भाजपा में शामिल होने वाले चार चेहरों को हाथोंहाथ भाजपा ने प्रत्याशी घोषित कर दिया। अब यह बात अलग है कि इससे पार्टी से लंबे समय से जुड़े कार्यकर्त्ता स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।

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जिताऊ चेहरे ने बेमायने किए सिद्धांत

राजनीति में अवसरवादिता सामान्य बात है, लेकिन उत्तराखंड जैसे छोटे, महज 21 वर्ष आयु के राज्य में इसका असर कुछ ज्यादा ही दिखा है। चुनाव में टिकट न मिलने पर निष्ठा बदल कर प्रतिद्वंद्वी के पाले में प्रवेश कर लेना अब इतना आसान हो गया है कि किसी भी पार्टी की रीति-नीति और सिद्धांत बेमायने होकर रह गए हैं। केवल जिताऊ चेहरा ही पैमाना बन गया है। उत्तराखंड में इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा है कांग्रेस पर। पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान कांग्रेस के कई बड़े नेता अलग-अलग कारणों से पार्टी को अलविदा कह भाजपा में चले गए और भाजपा ने भी उन्हें सहर्ष स्वीकार कर सम्मानजनक स्थान दिया है।

वर्ष 2014 से शुरू हुआ यह सिलसिला

बड़े कांग्रेस नेताओं के भाजपा का रुख करने की शुरुआत वर्ष 2014 में पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज से मानी जा सकती है। महाराज उस समय कांग्रेस के दिग्गजों में गिने जाते थे। फरवरी 2014 में जब कांग्रेस ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को हटाने का निर्णय लिया, तब महाराज मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन मौका मिला हरीश रावत को। इससे नाराज महाराज वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हो गए। दिलचस्प बात यह कि उस समय उनकी पत्नी अमृता रावत कांग्रेस विधायक और तत्कालीन हरीश रावत सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल थीं।

मार्च 2016 में हुआ सबसे बड़ा पालाबदल

मार्च 2016 में उत्तराखंड में अब तक का सबसे बड़ा दलबदल हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में आठ विधायक डा हरक सिंह रावत, अमृता रावत, सुबोध उनियाल, उमेश शर्मा काऊ, कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन, प्रदीप बत्रा, डा शैलेंद्र मोहन सिंघल व शैलारानी रावत भाजपा में शामिल हो गए। हरीश रावत सरकार संकट में घिर गई, लेकिन न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद विधानसभा में हुए फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने में सफल रही। हां, इतना जरूर हुआ कि फ्लोर टेस्ट के दौरान एक अन्य विधायक रेखा आर्य ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। वर्ष 2017 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक अन्य कद्दावर नेता यशपाल आर्य भी भाजपा में शामिल हो गए।

कांग्रेस से आए सभी नेताओं को टिकट

इन सभी नेताओं को भाजपा ने न केवल शरण दी, बल्कि पूरा सम्मान देते हुए वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट देने का वादा भी निभाया। अमृता रावत की जगह उनके पति सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा के स्थान पर उनके पुत्र सौरभ बहुगुणा को भाजपा ने प्रत्याशी बनाया। शेष सभी को भाजपा ने टिकट दिया। इनमें से केवल दो डा शैलेंद्र मोहन सिंघल व शैलारानी रावत चुनाव में पराजित हुए, शेष भाजपा से विधायक बने। रेखा आर्य भी भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतीं। यही नहीं, यशपाल आर्य के साथ ही उनके पुत्र संजीव आर्य को भी भाजपा ने टिकट दिया और दोनों ने ही जीत दर्ज की।

सत्ता में आए तो मंत्रिमंडल में आधी सीटें

मार्च 2017 में, जब त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में 10 सदस्यीय मंत्रिमंडल ने शपथ ली, तो इसके आधे सदस्य, यानी पांच मंत्री कांग्रेस पृष्ठभूमि के ही थे। इनमें सतपाल महाराज, यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल और रेखा आर्य शामिल थीं। मतलब, भाजपा ने कांग्रेस से आए नेताओं से किया गया वादा पूरी तरह निभाया। पांच साल पूरे होने से पहले इनमें से तीन यशपाल आर्य, संजीव आर्य व हरक सिंह रावत वापस कांग्रेस में लौट गए। आर्य पिता-पुत्र को तो इस बार कांग्रेस ने भी टिकट दिया है, लेकिन हरक सिंह रावत के साथ ऐसा नहीं हुआ। उन्हें कई दिन इंतजार कराने के बाद कांग्रेस में तो ले लिया गया, लेकिन टिकट उनकी पुत्रवधू अनुकृति को दिया, उन्हें नहीं।

पिछली बार पराजित दो नेताओं को भी मौका

महत्वपूर्ण यह कि कांग्रेस पृष्ठभूमि के सभी नेताओं को लगातार दूसरे चुनाव में भी भाजपा ने प्रत्याशी बनाया है। इनमें सतपाल महाराज, सुबोध उनियाल, रेखा आर्य, उमेश शर्मा काऊ, प्रदीप बत्रा, डा शैलेंद्र मोहन सिंघल व शैलारानी रावत शामिल हैं। कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन की सीट पर उनकी पत्नी रानी देवयानी सिंह को भाजपा ने मौका दिया है। साफ है कि भाजपा ने पिछले पांच वर्षों के दौरान चले तमाम राजनीतिक घटनाक्रम और कुछ नेताओं की निष्ठा पर सवाल के बावजूद कांग्रेस पृष्ठभूमि के किसी नेता को टिकट से वंचित नहीं किया।

इस बार चार नेताओं को भाजपा ने दिया अवसर

इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने अब चार अन्य कांग्रेस नेताओं को गले लगाने और उन्हें टिकट देने से गुरेज नहीं किया। नैनीताल से पिछली बार भाजपा टिकट पर जीते संजीव आर्य कांग्रेस में चले गए तो उनकी सीट पर टिकट से वंचित रह गईं महिला कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सरिता आर्य भाजपा की शरण में आ गईं। भाजपा ने उन्हें तत्काल नैनीताल से प्रत्याशी घोषित कर दिया। ऐसा ही कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के मामले में भी हुआ। शामिल होते ही भाजपा ने उन्हें टिहरी से टिकट का उपहार सौंप दिया। हरिद्वार जिले की झबरेड़ा सीट की कहानी भी काफी कुछ ऐसी ही रही। सिटिंग विधायक देशराज कर्णवाल का टिकट काट यहां से कांग्रेस पृष्ठभूमि के राजपाल सिंह को भाजपा ने प्रत्याशी बना दिया। इनके अलावा यमकेश्वर से रेणु बिष्ट व चकराता से रामशरण नौटियाल प्रत्याशी बनाए गए, दोनों पहले कांग्रेस में रहे हैं। पुरोला सीट से पिछला चुनाव निर्दलीय लड़े दुर्गेश्वर लाल को भी भाजपा ने पार्टी में शामिल होने के बाद कुछ ही घंटों में प्रत्याशी घोषित कर दिया।

बाहर से आने वालों पर भरोसा, मगर कार्यकर्त्ताओं में टीस

प्रतिद्वंद्वी रहे नेताओं को अवसर देने के मामले में भाजपा भले ही खुद की विश्वसनीयता स्थापित करने में सफल रही है, लेकिन इससे पार्टी के मूल कार्यकत्र्ताओं के मन में कहीं न कहीं टीस जरूर दिखती है। वर्षों तक पार्टी से जुड़े रहने के बाद जब चंद घंटे पहले आए कांग्रेस मूल के नेताओं को टिकट दे दिया जाता है तो ऐसे में कार्यकत्र्ता स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं। यही कारण है कि तमाम सीटों पर ऐसे नेता पार्टी से विद्रोह कर मैदान में ताल ठोकने को उतर पड़ते हैं। ऐसा इस चुनाव में भी होता नजर आ रहा है।

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