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उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022: छोटे से उत्तराखंड के मतदाताओं की बड़ी सोच

Uttarakhand Vidhan Sabha Election 2022 उत्तराखंड में चुनाव का मौसम आ गया है। 14 फरवरी को मतदान होगा। हर कोई वोटरों को रिझाने में जुटे हैं। लेकिन मतदाताओं का मत व्यवहार अलग है। यहां मतदाता लुभावने वादों को महत्व नहीं देते।

By Sunil NegiEdited By: Published: Wed, 19 Jan 2022 08:57 AM (IST)Updated: Wed, 19 Jan 2022 08:57 AM (IST)
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022: छोटे से उत्तराखंड के मतदाताओं की बड़ी सोच
उत्तराखंड में धीरे-धीरे चुनावी रंग गहराने लगा है।

सुमन सेमवाल, देहरादून। उत्तराखंड में धीरे-धीरे चुनावी रंग गहराने लगा है। हालांकि, प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनावी चेहरों पर अभी पत्ते नहीं खोले हैं। चेहरों को सामने लाने से पहले ये दल एक-दूसरे की रणनीति की अच्छी तरह परख कर लेना चाहते हैं। एकाध दिन में यह धुंधलका भी साफ हो जाएगा। इस बीच चुनावी वादों की पोटली खुलने लगी है। हर कोई मतदाताओं को इस चासनी में लपेटने का इंतजाम करने के प्रयासों में जुटे हैं। लेकिन, उत्तराखंड में अभी तक हुए चुनावों का रिकार्ड पलटें तो यहां के मतदाताओं का मत व्यवहार परिपक्व दिखता रहा है। मतदाता लुभावने वादों को कभी कोई खास महत्व नहीं देता रहा है। हांं, राजनीतिक दलों व प्रत्याशियों को उनके कामकाज के तौर-तरीकों के साथ ही विकास की सोच के पैमाने पर पूरी तरह परखता रहा है। राष्ट्रीय मुद्दों की छाप भी यहां के मतदाताओं के दिलो दिमाग पर हमेशा दिखी। खासकर, राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में मुखर होकर वह अपनी राय मत के जरिये प्रकट करते रहे हैं। राजनीतिक दलों की सोच, सीएम का चेहरा, प्रत्याशियों की छवि और पूर्व में उनका कामकाज चुनावों में मतदाताओं की कसौटी रहा है। सजगता की स्थिति यह कि चुनाव के दरिम्यान चौखट पर पहुंचने वाले प्रत्याशियों से सीधा सवाल करने से भी मतदाता पीछे नहीं हटते। चूंकि इस बार, कोरोना के साये में चुनाव हो रहे हैं, लिहाजा गुजरे दो सालों में कोरोना प्रबंधन में सरकार और जनप्रतिनिधियों की भूमिका का असर भी मतदाता के मन मस्तिष्क पर दिखेगा।

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विकास की कसौटी पर वोट

दो राय नहीं कि उत्तराखंड का मतदाता आंख मूंदकर भावनाओं में नहीं बहता। बात अगर, विकास की हो तो वोटर नेताओं को कठघरे में खड़ा करने से भी पीछे नहीं हटते। चुनाव ही नहीं, बाकी अवसरों पर भी विकास कार्यों को लेकर यहां जन की सजगता साफ झलकती है। उनकी साफगोई का इसी से पता चलता है कि चुनाव के दरिम्यान वे ऐसे नेताओं को खरी-खोटी सुनाकर अपनी चौखट से भगाने में भी नहीं झिकझते। पिछले कुछ चुनावों में मतदाता ऐसे नेताओं को झटका देकर उन्हें कड़ा संदेश दे चुके हैं। अभी तक के चुनावी नतीजे बताते हैं कि उत्तराखंड का मतदाता वोट डालने से पहले विकास के पैमाने पर राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों को बेहद करीब से कसता है। राजनीतिक दल भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए वह विकास के मुद्दे पर जनता को अपने पक्ष में करने के लिए तमाम वह काम गिनाते है, जो उन्होंने अपने कार्यकाल में किए होते हैं। इन चुनावों में भी भाजपा डबल इंजन से राज्य का विकास और तेजी से करने का वादा करके जनता की अदालत में खड़ी दिखती है।

राष्ट्रीय मुद्दों का भी असर

छोटा राज्य होने के चलते उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों में अधिकतर मुद्दे स्थानीय होते हैं। लेकिन यहां का मतदाता देश की हर छोटी-बड़ी घटनाओं के प्रति भी संवेदनशील रहता है। नोटबंदी हो या जीएसटी लागू करना, या फिर राष्ट्रीय हित में उठाए गए अन्य कदम। यह सब उत्तराखंड के मतदाताओं को प्रभावित करते रहे हैं। नोटबंदी का ही उदाहरण लें, इसको लेकर राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों ने तकनीकी व व्यवहारिक पहलुओं का हवाला देकर सवाल खड़े किए हों, पर यहां के मतदाताओं ने भी मूल मंशा को समझा और इसी अनुरूप चुनावों में अपनी भावनाएं मत के रूप में जाहिर की। गुड गवर्नेंस, भ्रष्टाचार पर प्रहार, स्वच्छ भारत मिशन व नमामि गंगे जैसे राष्ट्रीय मुद्दे भी उत्तराखंड के वोटर की कसौटी रहे हंै। यही वजह है कि प्रमुख राजनीतिक दल विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठाते हैं।

कोरोना प्रबंधन का दिखेगा असर

इस बार के विधानसभा चुनाव कोरोना की तीसरी लहर के बीच हो रहे हैं। कोरोना की तीसरी लहर चरम की तरफ बढ़ती दिख रही है। ऐसे में कोरोना संक्रमण की रोकथाम और उपचार के लिए किए गए इंतजामों को लेकर तंत्र की परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन पहले की दो लहरों में राज्य में कोरोना प्रबंधन की जो स्थिति रही, उसका असर किसी न किसी रूप में मतदाता के दिलो दिमाग पर दिखेगा। उस दौर में जब पूरी दुनिया कोरोना संक्रमण से प्रभावित थी, चहुंतरफ निराशा का माहौल था। जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष चल रहा था, तब उत्तराखंड के जनप्रतिनिधियों की भूमिका क्या रही। उनके सबल और कमजोर पक्ष को इन चुनावों में मतदाता किस पैमाने पर परखेगा, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन दो राय नहीं कि इस बार के चुनावों में मत व्यवहार पर इसका असर जरूर दिखेगा।

वोटर क्षेत्रवाद को नहीं देता तवज्जो

उत्तराखंड का मतदाता चुनावों में परिपक्वता का परिचय देता आया है। क्षेत्रवाद और जातिवाद जैसी संकीर्ण विचारधाराओं को यहां कम ही तवज्जो मिली। मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए चुनावों में उम्मीदवार इस तरह का पैंतरा आजमाते हैं। कहीं-कहीं क्षेत्रवाद को भी आधार बनाया जाता है। नेताजी वोटरों को क्षेत्रवाद और जातिवाद की घुट्टी पिलाने के हर हथकंडे अपनाते रहे हैं, लेकिन इसका असर कम ही दिखाई पड़ा। हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर की कुछ सीटें ही ऐसी हैं, जहां वोटों का गणित एक सीमा तक इस आधार पर बनता और बिगड़ता है। बाकी क्षेत्रों में जब भी किसी नेता ने क्षेत्रीय और जातीय आधार पर मतों का धु्रवीकरण करने की कोशिश की, मतदाताओं ने उसे सबक ही सिखाया। बावजूद इसके हर चुनाव में ऐसे कुत्सित प्रयास होते हैं, पर मतदाता परिपक्व होने का एहसास कराने से कभी नहीं चूका। लोकतंत्र की सेहत और उत्तराखंड के हित के लिए इसे अच्छा संकेत माना जा सकता है।

सीएम के चेहरे में भी दिलचस्पी

छोटे से उत्तराखंड में चुनावों में मतदाता केवल पार्टी और प्रत्याशी को नहीं देखता, बल्कि इस पर नजर रखता है कि सीएम का चेहरा कौन है। इसीलिए राजनीतिक दलों के लिए जितना महत्वपूर्ण प्रत्याशियों का चयन करना होता है, उससे कहीं अधिक सीएम का चेहरा तय करने के लिए सोचना पड़ता है। मतदाता चुनाव के पहले से ही यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि कौन सा दल किसे मुख्यमंत्री का चेहरा बना रहा है। राजनीतिक दल मतदाता की नब्ज को ठीक से समझ चुके हैं और मतदाताओं की पसंद-नापसंद के हिसाब से ही मुख्यमंत्री का चेहरा तय करने की कोशिशों में रहते हैं। सर्वानुमति न बनने की स्थिति में चेहरे की बजाय सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा के साथ चुनावी रण में आगे बढ़ते रहे हैं।

राजनीति के बड़े चेहरों की धमक

उत्तराखंड की राजनीति में बड़े चेहरों का सम्मोहन कम नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन हो, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की रैली। अब आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता अरविंद केजरीवाल भी इनमें शामिल हो गए हैं। चुनाव के मौकों पर जब भी ये नेता उत्तराखंड में जनसभा करने पहुंचते हैं तो अच्छी खासी भीड़ जुटती है। इसके कारण अलग-अलग हो सकते हैं, पर यह इस बात का प्रमाण दे जाता है कि राजनीति के बड़े चेहरों का उत्तराखंड के मतदाताओं पर खासा असर है। वोट के लिहाज से दलों को इसका कितना लाभ होता है, यह नतीजे स्पष्ट करते हैं। एक बात और यह कि उत्तराखंड के मतदाता स्टार प्रचारकों की उपस्थिति काफी नहीं मानते, बल्कि इसका आकलन भी करते हैं कि उनकी बात में कितना वजन है। पिछले चुनावों में उन्होंने जो वादे किए थे, उन पर वाकई में कितना काम हुआ।

राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता

सीमांत प्रदेश होने के नाते राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उत्तराखंड के मतदाता सजग रहते हैं। राज्य की सीमाएं नेपाल व चीन से सटी हुई हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा की जब भी बात होती है, उत्तराखंड के मतदाताओं की सीधी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। वह किसी भी कीमत पर इससे समझौता नहीं करने की पैरोकारी में खड़ा दिखता है। बीते कुछ सालों में हमारी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीन और नेपाल की तरफ से तरह-तरह की चुनौतियां पेश की गई, यहां के नागरिकों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, साथ ही सरकार को सलाह भी। सैन्य बाहुल्य राज्य होने के चलते मतदाता की इस सोच का राजनीतिक दल पूरा सम्मान करते हैं। इसी आलोक में यहां का मतदाता चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा के एजेंडे पर विचार अवश्य करता है।

नागरिक सुविधाओं पर भी लेते हैं जवाब

उत्तराखंड का मतदाता जितनी पैनी निगाह राष्ट्रीय मुद्दों पर रखता है, उतनी ही स्थानीय पर भी। खासकर, वह नागरिक सुविधाओं की कसौटी पर सरकारों और राजनीतिक दलों को कसता आया है। चुनाव की बेला पर राजनीतिक दलों की सड़क, बिजली, पानी, पुल, अस्पताल, स्कूल और शहरी विकास जैसे मुद्दों के सहारे मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश होती है। अगर किसी दल को इस बूते सरकार में आने का मौका मिला है तो अगले चुनावों में मतदाताओं उनसे इस बात का हिसाब भी अपने तरीके से लिया कि जो कहा था, वह किया कि नहीं। अगर किया है तो कितना। वोटर अपनी चौखट पर आने वाले प्रत्याशी और उसके दल के नेताओं से इन सवालों के जवाब मांगने से नहीं चूकते।

प्रत्याशियों की छवि का भी असर

छोटा प्रदेश होने के चलते अधिकांश मतदाता चुनावी रण में उतरने वाले प्रत्याशियों और उनके दलों के नेताओं को करीब से जानते हैं। ऐसे में प्रत्याशियों की व्यक्तिगत छवि का चुनाव में खासा असर पड़ता है। पिछले चुनावों के परिणाम भी बताते हैं कि प्रत्याशियों की छवि ने किस तरह परिणाम को प्रभावित किया है। एक बारगी वोटर किसी प्रत्याशी के बौद्धिक कौशल को लेकर एक हद तक समझौता कर सकता है, लेकिन व्यक्तिगत छवि को लेकर वह खासे संवेदनशील नजर आते हैं। घपले-घोटाले, भाई-भतीजावाद को लेकर जब कभी किसी पर अंगुली उठी, साबित भले नहीं हुई हो, पर चुनाव के मौकों पर वोटर के दिलो दिमाग से यह बात नहीं निकल पाई। नतीजों पर इसका असर भी देखने को मिला।

नेताजी की सक्रियता पर नजर

उत्तराखंड का मतदाता नेताजी की हर गतिविधि पर निगाह रखता है। खासकर, इंटरनेट मीडिया पर उनके अकाउंट खंगालता रहता है। पिछले चुनावों में देखने को मिला कि इंटरनेट मीडिया पर प्रत्याशियों की उपस्थिति का मतदाताओं ने बखूबी आकलन किया। उनकी पोस्ट पर खुलकर प्रतिक्रियाएं भी दीं। ताजा परिस्थितियों में यह और ज्यादा अहम हो गया। कोरोना पाबंदियों के चलते इस बार चुनाव प्रचार के लिए डिजीटल मोड ज्यादा इस्तेमाल होने जा रहा है।

प्रमुख राजनीतिक में अभी प्रत्याशियों की सूची को अंतिम रूप देने को लेकर मंथन चल रहा है, लेकिन मतदाताओं ने इंटरनेट मीडिया पर दावेदारी की परीक्षा लेनी शुरू कर दी है। मतदाता देख रहे हैं कि कौन नेताजी इंटरनेट मीडिया पर कितने सक्रिय हैं और जो बातें अपनी पोस्ट में कर रहे हैं, उनमें कितना दम है। यह भी देखा जा रहा है कि नेता जी के कितने फालोअर हैं और कौन हैं।

उत्तराखंड को नहीं लगी मुफ्तखोरी की हवा

मतदाताओं को रिझाने के लिए मुफ्तखोरी की लत डालने का चलन नया नहीं है। हां, इस बार राजनीतिक दलों में इसको लेकर प्रतिस्पर्धा सी देखने को जरूर मिल रही है। इनदिनों भी मुफ्तखोरी के तमाम वादे जनता से किए जा रहे हैं। मतदाता भी खामोशी से सब कुछ देख और समझ रहा है। चुनावी पन्ने पलटें तो यह कहा जा सकता है कि मुफ्तखोरी की लत को वोट की गारंटी नहीं माना जा सकता। कम से कम उत्तराखंड में तो कतई नहीं। सीमित आर्थिक संसाधनों वाले उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय भले ही दो लाख रुपये सालाना पार कर गई हो, मगर बड़ा तबका अभी भी आर्थिक रूप से उतना सक्षम नहीं हो पाया है।

बावजूद इसके उत्तराखंड की जनता को अभी तक मुफ्तखोरी की हवा नहीं लगी। इसीलिए मुफ्त में सुविधाएं देने का प्रलोभन अभी तक के चुनावों में उत्तराखंड में कभी वोट की गारंटी नहीं बन पाया। सरकारों, राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों ने लुभावने वादे किए, लेकिन वोट करते समय मतदाताओं ने इसे आधार नहीं बनाया। कुछ मैदानी सीटों पर मुफ्तखोरी की योजनाओं का प्रभाव जरूर दिखता रहा, लेकिन ये निर्णायक साबित नहीं होता।

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