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उत्तराखंड: भारी बहुमत का कमाल, निष्कंटक गुजरा 19वां साल

उत्तराखंड अपनी स्थापना के 19 साल पूरे करने जा रहा है। शुरुआत से ही सियासी अस्थिरता का शिकार रहा। अब जाकर इस नियति से पार पाने में सफल हुआ है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 09 Nov 2019 08:45 AM (IST)Updated: Sat, 09 Nov 2019 08:45 AM (IST)
उत्तराखंड: भारी बहुमत का कमाल, निष्कंटक गुजरा 19वां साल
उत्तराखंड: भारी बहुमत का कमाल, निष्कंटक गुजरा 19वां साल

देहरादून, जेएनएन। उत्तराखंड अपनी स्थापना के 19 साल पूरे करने जा रहा है। शुरुआत से ही सियासी अस्थिरता का शिकार यह सूबा युवावस्था में प्रवेश करने के बाद अब जाकर इस नियति से पार पाने में सफल हुआ है। चार विधानसभा चुनावों में पहली बार किसी पार्टी ने सुविधाजनक ही नहीं, भारी भरकम बहुमत के साथ सत्ता का स्पर्श किया। इसी का नतीजा है कि मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार बगैर किसी दबाव में काम कर रही है और पार्टी भी किसी तरह की गुटबाजी से दूर दिखती है। 

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राजनैतिक उथल-पुथल पर लग गया विराम

उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद पिछले ढाई साल का वक्फा सियासी स्थिरता के लिहाज से काफी बेहतर रहा। इसका कारण भी साफ है, सत्तारूढ़ भाजपा के पास विधानसभा में तीन-चौथाई से ज्यादा बहुमत है। दरअसल, उत्तराखंड में राजनैतिक रूप से उथल-पुथल का एकमात्र कारण यह रहा कि यहां जो भी पार्टी सत्ता में आई, जनता ने उसे कभी इतना बहुमत नहीं दिया कि वह फ्री हैंड होकर काम कर सके। इसके अलावा पार्टियों का अंतर्कलह भी स्थिर सरकार देने में लगातार आड़े आता रहा। यही वजह रही कि महज 19 साल की आयु में उत्तराखंड में आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं और इनमें से भुवन चंद्र खंडूड़ी को दो बार यह पद संभालने का मौका मिला।

डेढ़ साल की अंतरिम सरकार में दो मुख्यमंत्री

नौ नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड देश के मानचित्र पर 27 वें राज्य के रूप में अवतरित हुआ, तब भाजपा आलाकमान ने नित्यानंद स्वामी को पहली अंतरिम सरकार का मुख्यमंत्री पद सौंपा। स्वामी को पहले ही दिन से पार्टी के अंतर्विरोध से जुझना पड़ा। इसकी परिणति यह हुई कि एक साल पूर्ण करने से पहले ही उन्हें पद से रुखसत होना पड़ा और उनके उत्तराधिकारी बने भगत सिंह कोश्यारी। कोश्यारी के मुख्यमंत्री बनने के चार महीने बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा को बेदखल कर सत्ता पर काबिज हो गई। कोश्यारी अब तक सबसे कम समय कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री रहे हैं।

सियासी तजुर्बे के बूते पांच साल चलाई सत्ता

वर्ष 2002 में कांग्रेस ने सत्ता में आने पर तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत को दरकिनार पर नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी। तब कांग्रेस को बाहरी समर्थन लेकर सरकार बनानी पड़ी। इस सबके बावजूद महत्वपूर्ण बात यह रही कि कांग्रेस में अंदरखाने घमासान के बावजूद तिवारी पूरे पांच साल सरकार चलाने में कामयाब रहे। यह बात दीगर है कि इस दौरान कई दफा सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं भी चली। यह वह दौर था जब कांग्रेस में कई कद्दावर नेता थे। इनमें मुख्यमंत्री तिवारी के अलावा हरीश रावत, विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज शामिल थे।

भाजपा ने पांच साल में दो बार बदला मुख्यमंत्री

वर्ष 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अंतर्कलह की कीमत सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी। भाजपा सरकार बनाने में तो कामयाब रही मगर उसे भी स्पष्ट जनमत नहीं मिला। नतीजतन फिर बाहरी समर्थन से सरकार। भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की लेकिन इस बार भी भाजपा अंदरूनी मतभेदों का शिकार हो गई। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पांचों सीटों पर पराजित हुई। इसके बाद खंडूड़ी को महज सवा दो साल में कुर्सी छोडऩी पड़ी और रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया। निशंक का कार्यकाल भी इतना ही रहा और विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा आलाकमान ने दोबारा खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद पर बिठा दिया।

बहुगुणा का राजतिलक, फिर रावत को कुर्सी

भाजपा में चली इस उठापटक का जवाब मतदाता ने वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे सत्ता से बाहर कर दिया। फिर कांग्रेस सत्ता में आई और मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा। वर्ष 2013 की भयावह केदारनाथ प्राकृतिक आपदा में तत्कालीन सरकार की भूमिका सवालों के घेरे में रही तो दो साल का कार्यकाल पूरा करने से पहले ही कांग्रेस ने सरकार में नेतृत्व परिवर्तन करते हुए हरीश रावत को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंप दी। हालांकि रावत ने शेष तीन साल का कार्यकाल पूरा जरूर किया लेकिन यह दौर कांग्रेस के लिहाज से सबसे खराब दौर साबित हुआ।

कांग्रेस में बिखराव का दौर, कई ने छोड़ी पार्टी

हरीश रावत का मुख्यमंत्री बनना पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज को रास नहीं आया और वह वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का दामन झटक भाजपा में चले गए। इसके बाद भी कांग्रेस का आंतरिक संघर्ष थमा नहीं और इसकी परिणति मार्च 2016 में एक साथ नौ विधायकों के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने के रूप में सामने आई। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व तत्कालीन कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत भी शामिल थे। डेढ़ महीने बाद एक अन्य कांग्रेस विधायक रेखा आर्य भी भाजपा में शामिल हो गईं। यह क्रम यहीं नहीं थमा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन कैबिनेट मंत्री व दो बार कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य भी भाजपा का हिस्सा बन गए।

पहली बार किसी पार्टी को भारी भरकम जनमत

हरीश रावत पार्टी में बड़ी टूट के बावजूद तब तो सरकार बचाने में कामयाब रहे मगर विधानसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को चारों खाने चित कर डाला। 70 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा तीन-चौथाई से अधिक, 57 सीटों के साथ सत्ता हासिल करने में सफल रही। राज्य गठन के बाद के चार विधानसभा चुनाव में यह पहला मौका रहा, जब किसी एक पार्टी को इतना मजबूत जनादेश हासिल हुआ। यहीं से पिछले 17 सालों से चली आ रही सियासी अस्थिरता और अनिश्चतता पर विराम लग गया। भाजपा आलाकमान ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को सरकार का नेतृत्व सौंपा और पिछले लगभग पौने तीन साल के दौरान बगैर दबाव वह अपना कार्यकाल आगे बढ़ा रहे हैं।

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पांच साल से स्वर्णिम दौर से गुजर रही भाजपा

पिछले पांच वर्षों के दौरान उत्तराखंड में भाजपा अपने स्वर्णिम दौर से गुजर रही है। दो लोकसभा चुनावों में सभी पांचों सीटों पर कामयाबी, विधानसभा में भारी बहुमत और फिर निकाय चुनाव में भी प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन। अब हालिया त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के नतीजों ने भी साबित कर दिया कि जनता ने फिर भाजपा पर विश्वास जताया है। शायद यह भारी बहुमत का ही असर है कि भाजपा में पिछले पौने तीन साल के दौरान गुटबाजी पूरी तरह हाशिये पर है। यहां तक कि मंत्रिमंडल में शुरुआती सवा दो साल दो स्थान और अब तीन स्थान रिक्त हैं लेकिन मुख्यमंत्री काम का बोझ होने के बावजूद मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर किसी जल्दबाजी में नहीं दिखते।

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