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अनादि काल से महान साधकों की तपोभूमि रहा है उत्तराखंड

आध्यात्मिक शांति के लिए हर साल हजारों साधक हिमालय की कंदराओं की ओर रुख करते हैं। आज भी यहां विभिन्न रूपों में मौजूद इन महायोगियों की स्मृतियों से दुनिया प्रेरणा प्राप्त करती है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 21 Jun 2018 06:08 AM (IST)Updated: Sat, 23 Jun 2018 05:24 PM (IST)
अनादि काल से महान साधकों की तपोभूमि रहा है उत्तराखंड
अनादि काल से महान साधकों की तपोभूमि रहा है उत्तराखंड

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: उत्तराखंड हिमालय अनादि काल से महान साधकों की तपोभूमि रहा है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, महर्षि कण्व, महर्षि अगस्त्य, महर्षि गौतम, महर्षि द्रोणाचार्य, कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास, राजा भगीरथ जैसे महायोगियों ने इसी पावन भूमि पर अपनी साधना एवं संकल्पों को नए आयाम दिए। यहीं से लाहिड़ी महाशय, परमहंस योगानंद, परमहंस शिवानंद, परमहंस सत्यानंद, परमहंस विष्णुदेवानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी राम जैसे मनीषियों ने देश-दुनिया को योग एवं अध्यात्म का संदेश दिया। आज भी यहां विभिन्न रूपों में मौजूद इन महायोगियों की स्मृतियों से दुनिया प्रेरणा प्राप्त करती है। 

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आध्यात्मिक शांति के लिए हर साल हजारों साधक हिमालय की कंदराओं की ओर रुख करते हैं। यही वजह है कि 'विश्व योग दिवस' के खास मौके पर मानवता को आध्यात्मिक उन्नति का संदेश देने के लिए उत्तराखंड की धरती को चुना गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि योग को अंतर्मन में धारण कर नए जीवन की शुरुआत करने वाले लोग एक आदर्श समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेंगे।

असल में योग सिर्फ शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने की क्रिया का ही नाम नहीं है। योग को हम गहराई से समझें तो हमें इसके लाभों के साथ-साथ इसके प्रभावों का ज्ञान भी होता है। देखा जाए तो योग विश्व इतिहास का सबसे पुराना व्यावहारिक विज्ञान है, जिसने व्यक्ति के अध्यात्मिक एवं शारीरिक क्रियाकलापों के लिए नए द्वार खोले। इसके सभी कर्म व क्रियाएं मनुष्य को शारीरिक एवं आत्मिक रूप से पूर्ण योगी बनाती हैं। इसीलिए योग को आत्मा से परमात्मा के मिलन का साधन भी कहा गया है। 'योग प्रदीप' में योग के विभिन्न प्रकारों का वर्णन मिलता है, जैसे राज योग (अष्टांग योग), हठ योग, लय योग, ध्यान योग, भक्ति योग, क्रिया योग, कर्म योग, मंत्र योग, ज्ञान योग आदि। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'योग: कर्मसु कौशलम' (योग से कर्मों में कुशलता आती है)। लेकिन, इसके लिए आचरण की शुद्धता जरूरी है, जिसके तन-मन को साधने के उक्त उपक्रम बताए गए हैं। 

सबसे अहम बात यह कि योग के लिए जितनी जरूरी तन-मन की शुद्धता है, उतनी है प्रकृति की सौम्यता भी। यह न भूलें कि हम जैसे परिवेश में रहते हैं, उसी के अनुरूप हमारा आचरण भी हो जाता है। और...योग तो प्रकृति से एकाकार होने का ही नाम है। लेकिन, ऐसा तभी संभव जब हमारे आसपास का वातावरण निर्मल एवं पवित्र हो। हमारे ऋषि-मुनि इस बात को जानते थे, इसलिए उन्होंने अपनी साधना के लिए देवभूमि उत्तराखंड को चुना। यहां प्रकृति की हर रचना में योग समाया हुआ है। भगवद् गीता में कहा गया है कि 'सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते' अर्थात दुख-सुख, लाभ-हानि शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना ही योग है। जबकि, सांख्य दर्शन के अनुसार 'पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते' अर्थात पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व-स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है। और, इसके लिए वातावरण हमें प्रकृति ही उपलब्ध कराती है।

सीमाओं में कैद नहीं है योग

योग के शास्त्रीय स्वरूप और दार्शनिक आधार को सम्यक रूप से समझना आसान नहीं है। संसार को मिथ्या मानने वाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से योग का समर्थन करता है, तो अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक (दिव्यदर्शी) भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यता और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ योग से सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। इसलिए योग को किसी भी तरह की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता।

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