तैनाती स्थलों में न प्रधानाचार्य हैं और न मास्साब, साहब हैं परेशान
अरे साहब लॉकडाउन क्या हुआ बस उत्सव बेला हो गई। तैनाती स्थलों यानी सरकारी स्कूलों में न प्रधानाचार्य हैं और न मास्साब। अब फीडबैक कैसे जुटाएं सब नदारद।
देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। अरे साहब, लॉकडाउन क्या हुआ बस उत्सव बेला हो गई। तैनाती स्थलों यानी सरकारी स्कूलों में न प्रधानाचार्य हैं और न मास्साब। सरकार का आदेश है कि दूरदर्शन और ऑनलाइन माध्यम से होने वाली पढ़ाई का फीडबैक छात्रों से लिया जाए। अब फीडबैक कैसे जुटाएं, सब नदारद। साहब को आज तक वर्क फ्रॉम होम का असल मतलब समझ नहीं आ रहा है। महामारी के मौके पर घर से काम करने को कहा गया, लेकिन मुख्यालय छोड़ने को कतई नहीं कहा गया। यानी जो जहां तैनात है, वहीं घर पर रहे और जरूरत पड़ने पर तुरंत काम के लिए हाजिर हो। माध्यमिक और प्रारंभिक शिक्षा निदेशक आरके कुंवर पर आजकल यही सवालिया अंदाज तारी है। कमोबेश यही हाल उच्च शिक्षा निदेशक डॉ. अशोक कुमार का भी है। कॉलेजों में प्राचार्य हैं ही नहीं। सरकार पूछती है, दोनों साहब को जवाब नहीं सूझता। निदेशालयों के साथ दफ्तरों में भी सूनापन पसरा है।
मंत्री जी का दूरदर्शन प्रेम
लॉकडाउन की वजह से उत्तराखंड बोर्ड के छात्रों की पढ़ाई की दिक्कतों को दूरदर्शन ने जब से अनलॉक किया है, तब से उसके मुरीदों में निरंतर इजाफा हो रहा है। दरअसल, ऑनलाइन पढ़ाई का क्रेज काफी बढ़ चुका है, लेकिन दूरदराज गामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी न होने से छात्र परेशान हैं। यह समस्या सिर्फ स्कूली शिक्षा तक सीमित नहीं है। उच्च शिक्षा में भी यही बाधा पेश आ रही है। सरकारी डिग्री कॉलेजों में ऑनलाइन शिक्षा को तेजी से बढ़ावा दिया गया है। बात जब कनेक्टिविटी पर आकर अटकी तो उच्च शिक्षा राज्यमंत्री डॉ. धन सिंह रावत ने दिमाग के घोड़े दौड़ाए। ऐसे में समाधान के रूप में निगाहें दूरदर्शन पर जा टिकीं। उन्होंने फरमान जारी किया कि डिग्री कॉलेज के छात्रों को पढ़ाने के लिए भी दूरदर्शन का उपयोग किया जाए। दूरदर्शन के प्रति मंत्री जी की मुहब्बत से महकमे में हलचल काफी बढ़ गई है।
निजी स्कूलों के फूले हाथ-पांव
नए शैक्षिक सत्र का पूरा एक महीना गुजरने को है, कोरोना संकट से बचने की जंग में स्कूल बंद पड़े हैं। अगले महीने मई में स्कूल खुलेंगे, इसके आसार भी कम ही नजर आ रहे हैं। सीबीएसई शैक्षिक सत्र को तीन महीना घटाने की तैयारी कर चुकी है। स्कूल कोरोना वायरस संक्रमण के वाहक न बनें, इसे देखते हुए केंद्र और राज्य, दोनों सरकारें खासी सावधानी बरत रही हैं। शैक्षिक सत्र घटाने की तैयारी के बीच यह मांग भी सिर उठा रही है कि स्कूलों में सिर्फ नौ महीने की फीस ली जाए। अभिभावकों के मुखर होने से सरकार में हलचल दिखने लगी है। इससे निजी स्कूलों की बेचैनी एक बार फिर बढ़ने जा रही है। कह-सुनकर बंद पड़े स्कूलों में स्टाफ की तनख्वाह का हवाला देकर बमुश्किल फीस जमा कराने का फरमान सरकार से जारी कराया है। तीन महीने की फीस छोड़ने के मामले में माहौल गर्माना तय है।
नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी..
नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है.., गुजरे जमाने का यह गीत राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी और सरकारी सहायता से चलने वाले स्कूलों में अब भी सुनाई दे जाता है। इन्हीं साढ़े चार लाख से ज्यादा नौनिहालों की तकदीर साढ़े 14 हजार स्कूलों में लॉकडाउन है। माध्यमिक से लेकर डिग्री कक्षाओं के छात्रों की पढ़ाई के बारे में सोचा गया, लेकिन प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों के बारे में अब तक कोई सुध नहीं ली गई। आश्चर्यजनक ये है कि निजी और सरकारी दोनों ही तंत्र इन बच्चों को लेकर संजीदा नजर नहीं आते। वजह बाल मनोविज्ञान के प्रति न हमारे स्कूल और न ही हमारा समाज आज तक सजग हो पाया है। शिक्षाविद् बार-बार सवाल उठाते हैं कि सरकारी शिक्षा बाल केंद्रित होनी चाहिए। शिक्षा के केंद्र में शिक्षक, अधिकारी, स्कूल भवन, तनखैया बजट है, बालक नहीं है। बचपन के भविष्य से जुड़े तीखे सवालों पर पूरा तंत्र मौन है।