1971 के युद्ध में उत्तराखंड के वीरों ने मनवाया था लोहा, पढ़िए पूरी खबर
1971 के युद्ध में उत्तराखंड के रणबांकुरों का बलिदान नहीं भुलाया जा सकता। इस युद्ध में प्रदेश के 255 रणबांकुरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए कुर्बानी दी थी।
देहरादून, जेएनएन। उत्तराखंड को वीरों की धरती यूं ही नहीं कहा जाता। यहां के वीर योद्धाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया है। 1971 का युद्ध भी इसी शौर्य का प्रतीक है। भारतीय सेना की इस अटूट विजयगाथा में उत्तराखंड के रणबांकुरों का बलिदान नहीं भुलाया जा सकता। इस युद्ध में प्रदेश के 255 रणबांकुरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए कुर्बानी दी थी।
रण में दुश्मन से मोर्चा लेते राज्य के 78 सैनिक घायल हुए। इन रणबांकुरों की कुर्बानी व अदम्य साहस को पूरी दुनिया ने माना। यही वजह कि इस जंग में दुश्मन सेना से दो-दो हाथ करने वाले सूबे के 74 जांबाजों को वीरता पदक मिले थे। शौर्य और साहस की यह गाथा आज भी भावी पीढ़ी में जोश भरती है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1971 में हुए युद्ध में दुश्मन सेना को नाको चने चबाने में उत्तराखंड के जवान पीछे नहीं रहे। तत्कालीन सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ (बाद में फील्ड मार्शल) व बांग्लादेश में पूर्वी कमान का नेतृत्व करने वाले सैन्य कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने भी प्रदेश के वीर जवानों के साहस को सलाम किया। युद्ध में शरीक होने वाले थलसेना, नौसेना व वायुसेना के तमाम योद्धा जंग के उन पलों को याद कर जोशीले हो जाते हैं।
भारत-पाक युद्ध की विजयगाथा संजोए है भारतीय सैन्य अकादमी
16 दिसम्बर ही वह दिन था जब पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने अपने करीब नब्बे हजार सैनिकों के साथ भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जसजीत अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर हथियार डाल दिए थे। जनरल नियाजी के आत्मसमर्पण करने के साथ ही यह युद्ध भी समाप्त हो गया। इस दौरान जनरल नियाजी ने अपनी पिस्तौल जनरल अरोड़ा को सौंप दी थी। यह पिस्तौल आज भी भावी सैन्य अफसरों में जोश भरने का काम करती है। भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास हमेशा से ही युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है।
भारतीय सैन्य अकादमी (आइएमए) के म्यूजियम में रखे 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध की एतिहासिक धरोहर और दस्तावेज कैडेटों में अपने गौरवशाली इतिहास और परंपरा को कायम रखने की प्रेरणा देते हैं। इनमें सबसे प्रमुख जनरल नियाजी की वह पिस्तौल है जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना के आत्म-समर्पण के दौरान इस्टर्न कमांड के जनरल आफिसर कमांडिंग ले.जनरल अरोड़ा को सौंपी थी। जनरल अरोड़ा ने यह पिस्टल आइएमए के गोल्डन जुबली वर्ष 1982 में आइएमए को प्रदान की। इसी युद्ध से जुड़ी दूसरी वस्तु एक पाकिस्तानी ध्वज है जो आइएमए में उल्टा लटका हुआ है।
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इस ध्वज भारतीय सेना ने पाकिस्तान की 31 पंजाब बटालियन से 7 से नौ सितंबर तक चले सिलहत युद्ध के दौरान कब्जे में लिया था। जनरल राव ने आइएमए की गोल्डन जुबली वर्ष में आइएमए को यह ध्वज प्रदान किया। भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध की एक अन्य निशानी जनरल नियाजी की कॉफी टेबल बुक भी आइएमए की शोभा बढ़ा रही है। यह निशानी कर्नल (रिटायर्ड) रमेश भनोट ने 38 वर्ष बाद जून 2008 में आइएमए को सौंपी।
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