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खिलाड़ियों का हुनर तराशने की बजाय पैसा कमाना बना एकेडमियों का लक्ष्य

दून में कुकुरमुत्तों की तरह क्रिकेट ऐकेडमियां खुली हैं। इनका लक्ष्य खिलाड़ियों का भविष्य संवारना नहीं बल्कि पैसा कमाना है। टूर्नामेंट के नाम पर भी खिलाड़ियों से वसूली होती है।

By BhanuEdited By: Published: Wed, 26 Feb 2020 09:33 AM (IST)Updated: Wed, 26 Feb 2020 09:33 AM (IST)
खिलाड़ियों का हुनर तराशने की बजाय पैसा कमाना बना एकेडमियों का लक्ष्य
खिलाड़ियों का हुनर तराशने की बजाय पैसा कमाना बना एकेडमियों का लक्ष्य

देहरादून, निशांत चौधरी। खेल और पैसे का साथ किसी से छिपा नहीं है। हकीकत है कि खिलाड़ी को नाम कमाने के बाद पैसों की तरफ भागना नहीं पड़ता, बल्कि बड़ी-बड़ी फ्रेंचाइजी ऐसे खिलाड़ियों के लिए पैसा लिए खड़ी रहती है। इसके लिए खिलाडिय़ों को आम से खास बनना पड़ता है और खिलाड़ियों का आम से खास बनाने का दावा दून की कई क्रिकेट ऐकेडमी करती हैं। 

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हकीकत में ऐसी ऐकेडमियों का लक्ष्य खिलाड़ियों का भविष्य संवारना नहीं, बल्कि खुद पैसा कमाना है। ऐकेडमी टूर्नामेंट आयोजन कराने के नाम पर भी खिलाड़ियों से मोटी रकम वसूलती है। एक टूर्नामेंट में के आयोजन के दौरान हर खिलाड़ी से दो से तीन हजार रुपये वसूले जाते हैं। 

हैरत यह है कि प्रदेश क्रिकेट संघ के संज्ञान में यह सब है उसके बाद भी वे मौन साधे हैं। इसलिए दून से क्रिकेट में एक भी खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाया है। क्योंकि, जब तक खेल कमाई का जरिया बना रहेगा तब तक अच्छे परिणाम की उम्मीद करना बेमानी है। 

खेल में भी अनेक जालसाज

संसाधनों और सुविधाओं के अभाव के कारण देश की हजारों प्रतिभाएं मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। किराने की दुकान की तरह खुल रही स्पोर्ट्स ऐकेडमी खिलाड़ियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। स्थिति यह है कि दून में कई ऐसी स्पोट्र्स ऐकेडमी खुली हैं, जो बच्चों को अपने यहां विशेषज्ञ कोच होने के दावे कर गुमराह कर रही है। 

हकीकत में अप्रशिक्षित कोच बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। जिससे बच्चों का खेल सुधरने के बजाय खराब हो रहा है। लेकिन, इसकी मॉनीटिरिंग करने वाला कोई नहीं है। जिससे ऐसी फर्जी संस्थाएं मोटी चांदी काट रही हैं और खिलाड़ियों का भविष्य चौपट हो रहा है। खेल विभाग की निष्क्रियता के कारण दून में पनप रही ऐसी फर्जी संस्थाएं भावी खिलाड़िोयं के लिए घातक साबित हो सकती हैं। इन पर अंकुश लगाने के लिए विभाग को इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है। 

बदलाव भी नहीं आए काम

बदलाव प्रकृति का नियम है। खेलो में भी यह अनवरत जारी है। क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ उत्तराखंड ने इसी आदर्श वाक्य पर चलते रणजी के रण का खाका तैयार किया। टीम का प्रदर्शन सुधारने के लिए कप्तान समेत अन्य खिलाड़ियों में भी बदलाव किया। 

इस बदलाव से बेहतर परिणाम तो नहीं निकले बल्कि शर्मनाक प्रदर्शन का सिलसिला जारी रहा। टीम में पहली गाज गिरी विजय हजारे ट्रॉफी में दोहरा शतक लगाने वाले करनवीर कौशल पर। बतौर सलामी बल्लेबाज प्रदर्शन नहीं करने पर उन्हें टीम से बाहर किया गया। 

इसके बाद कप्तान उन्मुक्त चंद को कप्तानी से हटाया गया। इनकी जगह तनमय श्रीवास्तव को कप्तान बनाया गया। इसके बावजूद टीम के प्रदर्शन पर कोई असर नहीं पड़ा। आलम यह रहा कि इलीट ग्रुप सी से खेलते हुए उत्तराखंड एक भी मैच नहीं जीत पाया। इस प्रदर्शन के आधार पर उसे अगले सत्र में वापस प्लेट ग्रुप से खेलने को मजबूर होना पड़ेगा।

खेलो में भी परिवारवाद हावी

राजनीति में परिवारवाद के उदाहरण तो आम है लेकिन उत्तराखंड में खेल भी इससे अछूते नहीं है। प्रदेश में कई खेल संघों के पदाधिकारियों ने अपनी पत्नी और बच्चों तक को पदाधिकारी बना रखा हैं। इनमें आला अधिकारी भी पीछे नहीं हैं। आलम यह है कि खुद खेल विभाग के अधिकारी भी खेल संघों में अपनी मजबूत पकड़ बनाए बैठे हैं। 

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खेल संघों में बढ़ते परिवारवाद के चलते खेलो का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। खेलों की जानकारी नहीं रखने वाले लोग पदाधिकारी बन कर खेल संघों में अपनी ढपली अपना राग बजा रहे हैं। जिसका खामियाजा  खिलाड़ियों को भुगतना पड़ रहा है। जबकि खेल संघों को चाहिए कि खेलों में राजनीति न कर विशेषज्ञों को ही पदाधिकारी बनाया जाए। जिससे पदाधिकारी खेल व खिलाड़ियों के हित के लिए न सिर्फ निर्णय लें बल्कि राज्य सरकार के समक्ष भी खिलाड़ियों के हित की बात पुरजोर ढंग से रखें।

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