सिस्टम विकास कार्यों की निगरानी को लेकर कितना गंभीर है इसका ताजा उदाहरण है बडासी पुल
सरकारी अमलों में अधिकारियों की लंबी फौज है। हर माह इनके वेतन पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। मगर सिस्टम विकास कार्यों की निगरानी को लेकर कितना गंभीर है थानो रोड पर बडासी पुल और डोईवाला में लच्छीवाला ओवरब्रिज की क्षतिग्रस्त एप्रोच रोड इसके ताजा उदाहरण हैं।
विजय मिश्रा, देहरादून। सरकारी अमलों में अधिकारियों की लंबी फौज है। हर माह इनके वेतन पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। इस उद्देश्य से कि जनहित के कार्य समय पर और व्यवस्थित तरीके से हो सकें। मगर, सिस्टम विकास कार्यों की निगरानी को लेकर कितना गंभीर है, थानो रोड पर बडासी पुल और डोईवाला में लच्छीवाला ओवरब्रिज की क्षतिग्रस्त एप्रोच रोड इसके ताजा उदाहरण हैं। बडासी पुल 2018 में बना और लच्छीवाला ओवरब्रिज महज एक साल पहले। इस निम्न अवधि में पुलों का क्षतिग्रस्त होना बताता है कि निर्माण कार्य में किस कदर लापरवाही बरती गई। साफ तौर पर इसके लिए कार्यदायी संस्था जिम्मेदार हैं। इस लापरवाही के लिए उनपर शिकंजा कसना शुरू भी कर दिया गया है, लेकिन सवाल यह है कि उस निगरानी तंत्र का क्या, जिसके कंधे पर यहां व्यवस्था चाक-चौबंद रखने की जिम्मेदारी थी। इस तंत्र ने अपना कार्य ईमानदारी से किया होता तो यह नौबत ही नहीं आती।
बेटिकट बसों से हांफ रहा रोडवेज
उत्तराखंड परिवहन निगम यानी रोडवेज 500 करोड़ से ज्यादा के घाटे में चल रहा है। अब आप पूछेंगे कि क्यों और कैसे? भाई, इसका ठीक-ठाक जवाब तो अधिकारी ही दे पाएंगे। हां, इतना जरूर है कि इसमें बड़ा श्रेय बेटिकट सवारी ढोने वालों का भी है। करीब एक माह में ही आधा दर्जन बसों में बेटिकट यात्रा कराने का फर्जीवाड़ा पकड़ा जा चुका है। बेटिकट का मतलब यह नहीं कि यात्री ने टिकट नहीं लिया। परिचालक ने यात्री को टिकट तो दी, मगर फर्जी। यूं तो ऐसे मामलों में परिचालक पर सीधे एफआइआर का प्रविधान है, मगर यह होता कभी नहीं। सो, चालक-परिचालक भी बेखौफ हैं। वह फर्जीवाड़े में सिद्धहस्त होते जा रहे हैं। साहब लोग, एसी वाले कमरे के आदी हो गए हैं। उन्हें धूप में बसों की चेकिंग करना रास नहीं आता। नतीजा यह कि परिवहन निगम में आजकल बसें कम और टिकट घोटाले ज्यादा दौड़ रहे हैं।
कोरोना थमा है, खत्म नहीं हुआ
प्रदेश में कोरोना वायरस के प्रसार में गिरावट आने के बाद हालात एक बार फिर सामान्य होने लगे हैं। यकीनन यह राहत की बात है, मगर इस राहत से उपजी बेफिक्री पर चिंतन की जरूरत है। दूसरी लहर में कोरोना ने बता दिया कि वह हमारी दुनिया में अपने पैर जमाने के लिए खासा गंभीर है। यह अलग बात है कि महामारी की रफ्तार मंद पड़ते ही हमने इसकी गंभीरता को भाव देना छोड़ दिया। बाजार खुलते ही सड़कों पर गाड़ियों की रेलमपेल यही उद्घोष कर रही है। सरकार जरूर इस मोर्चे पर गंभीर है, मगर यह गंभीरता तब तक कारगर साबित नहीं होगी, जब तक अव्यवस्था के छेदों को रफू नहीं किया जाएगा। एक संदेश जनता-जनार्दन के लिए भी है कि अव्यवस्था का फायदा उठाकर दिल को आल इज वेल का फर्जी संदेश मत सुनाइये। यह कोरोना है, सरकार नहीं कि इंटरनेट मीडिया पर कोस कर भड़ास निकाल लेंगे।
ब्रिस्टन में छाया स्नेह का जलवा
एक क्रिकेटर जब तक मैदान में होता है, उसका जीवन खेल और उससे मिलने वाली चोटों के आसपास घूमता रहता है। हालांकि, इस मामले में गेंदबाज की अपेक्षा बल्लेबाज कुछ हद तक भाग्यशाली होते हैं। उनके लिए चोट से उबरकर वापसी करना थोड़ा आसान होता है। लेकिन, मन में जीत का हौसला हो तो विपरीत परिस्थितियां भी स्नेह बरसाती हैं। देवभूमि की लाडली स्नेह राणा की जिजीविषा यही संदेश देती है। ब्रिस्टन टेस्ट में हालात अनुकूल नहीं होते हुए भी स्नेह ने अंग्रेज महिलाओं को अपनी फिरकी पर नचा दिया। इसके बाद बल्ले से भी जौहर दिखाया। नतीजा, फालोआन मिलने के बाद भी मैच ड्रा पर खत्म। निसंदेह इस उपलब्धि की नायिका स्नेह रहीं। कई वर्ष बाद भारतीय टीम की जर्सी पहनकर मैदान में उतरी स्नेह ने ब्रिस्टन टेस्ट में जो कमाल किया, वह इतिहास के पन्नों में हमेशा दर्ज रहेगा। युवाओं को प्रेरणा देगा। हमें गर्व की अनुभूति कराएगा।
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