अनुकूल हरि कृपा है तो प्रतिकूल हरि की इच्छा
कभी भी कुछ इच्छा के अनुकूल हो तो उसे हरि कृपा मान लें लेकिन प्रतिकूल होने पर उसे हरि इच्छा मानना चाहिए।
जागरण संवाददाता, देहरादून: कभी भी कुछ इच्छा के अनुकूल हो तो उसे हरि कृपा मान लें, लेकिन प्रतिकूल होने पर उसे हरि इच्छा मानना चाहिए। मनुष्य की जीवन धारा के यही दो किनारे हैं। साधक को भी चाहिए कि अनुकूल परिस्थिति में सावधान रहे, क्योंकि अनुकूल का दुरुपयोग होने पर प्रतिकूलता जन्म लेती है। यह उद्गार सुभाष रोड स्थित चिन्मय मिशन आश्रम में चल रही सात-दिवसीय भरत चरित्र कथा के तीसरे दिन प्रवचन करते हुए युग तुलसी पंडित रामकिंकर उपाध्याय के शिष्य स्वामी मैथिलीशरण ने व्यक्त किए। उन्होंने भरत चरित्र को आधार बनाकर न सिर्फ समाज को भक्ति की महत्ता समझाई, बल्कि अहंकार से दूर रहने का संदेश भी दिया।
श्री सनातन धर्म सभा गीता भवन की ओर से आयोजित कथा में श्री राम किंकर विचार मिशन के परमाध्यक्ष स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि संसार, अहंकार और ईश्वर, तीनों अनंत हैं। अंतर सिर्फ यह है कि संसार और अहंकार की अनंतता खंडित हो जाती है, जबकि ईश्वर की अनंतता अखंड है। भरत के चरित्र का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि ननिहाल से लौटकर भरत ने अयोध्या को प्राणरहित शरीर की तरह देखा। जब उन्होंने माता कैकेयी के मुख से पिता महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुना तो कैकेयी के प्रति कठोर वचन प्रयोग किए। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा के अनुसार उन्होंने पिता का अंतिम संस्कार किया। साथ ही तय किया कि अगली ही सुबह चित्रकूट के लिए प्रस्थान करेंगे, क्योंकि श्रीराम को देखे बिना वह रह नहीं सकते।
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ममता को भगवान के हाथों में सौंप दें
स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि ममता को भगवान के हाथों में सौंप देना चाहिए, जबकि अहमता को उनके चरणों में। तभी जीवन में राग-द्वेष से मुक्ति संभव है। माता कैकेयी के हृदय में पुत्र भरत के प्रति जो ममता थी, भरत ने उसको समाप्त किया और चित्रकूट जाने पर ममता के केंद्र श्रीराम हो गए। जीवन में कोई दोष न होने पर भी भरत नंदीग्राम में रहकर अपने दोषों का चिंतन और श्रीचरणों के अनुरागी लक्ष्मण के गुणों की सराहना करते रहे।
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