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उत्‍तराखंड: पहाड़ में शिला के शिल्पियों को नहीं मिल रहे कद्रदान, व्‍यवसाय छोड़ने को हैं मजबूर

सदियों पुराने ऐतिहासिक साक्ष्यों में पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियां और शिलालेख प्रमुख हैं। जो आज भी हमें सदियों पुरानी संस्कृति और सभ्यता से रूबरू कराती हैं। ऐतिहासिक इमारतों और मंदिरों को देखकर पर्यटक पत्थर शिल्पियों की रचनात्मक कुशलता की तारीफ करते हैं।

By Sumit KumarEdited By: Published: Sun, 05 Dec 2021 07:22 PM (IST)Updated: Sun, 05 Dec 2021 10:10 PM (IST)
उत्‍तराखंड: पहाड़ में शिला के शिल्पियों को नहीं मिल रहे कद्रदान, व्‍यवसाय छोड़ने को हैं मजबूर
सरकारी स्तर पर भी इस व्यवसाय को प्रोत्साहन नहीं मिला है।

शैलेंद्र गोदियाल, उत्तरकाशी: सदियों पुराने ऐतिहासिक साक्ष्यों में पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियां और शिलालेख प्रमुख हैं। जो आज भी हमें सदियों पुरानी संस्कृति और सभ्यता से रूबरू कराती हैं। ऐतिहासिक इमारतों और मंदिरों को देखकर पर्यटक पत्थर शिल्पियों की रचनात्मक कुशलता की तारीफ करते हैं। शिल्पकारों द्वारा सदियों पुरानी पत्थर की नक्काशी के देश भर में करोड़ों अवशेष अभी भी ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में विश्व प्रसिद्ध हैं। लेकिन वर्तमान दौर में पत्थर नक्काशी के शिल्पकारों की कद्र नहीं है। आधुनिकता के दौर में उत्तराखंड में भी पत्थर शिल्पी इस व्यवसाय को छोड़ रहे हैं। सरकारी स्तर पर भी इस व्यवसाय को प्रोत्साहन नहीं मिला है। यही हाल रहा तो पत्थर शिल्पी अब बीते जमाने की बात हो जाएंगे।

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सीमांत जनपद उत्तरकाशी में कई ऐसे मंदिर, स्थल और भवन हैं, जो अपनी ऐतिहासिकता को समेटे हुए हैं। उत्तरकाशी में कई ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्व में मिल चुके हैं। जो सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती है। पहाड़ के गांवों में आज भी पुराने जांदरे (हथचक्की), सिलबट्टे, छोटे-छोटे पत्थर की मूर्तियां सहित मंदिरों और भवनों पर पत्थर की नक्काशी मिलती है। इस सदियों पुरानी विरासत को आज के आधुनिक युग में हम तक पहुंचाने वाले पत्थर शिल्पियों को सबसे बड़ा योगदान है। लेकिन, वर्तमान दौर में पत्थर शिल्पियों के सामने आजीविका का संकट है। आधुनिकता और प्रचार-प्रसार की कमी के कारण यह समृद्ध आजीविका का स्रोत दम तोड़ रहा है।

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हस्त शिल्पियों का कहना है कि समय के साथ भवनों के बदलते स्वरूप ने भी पहाड़ में इस व्यवसाय को काफी हद तक प्रभावित किया है। जिसके कारण पत्थरों के शिल्पियों को जांदरे (हथचक्की), सिलबट्टे, छोटे-छोटे पत्थर की मूर्तियां सहित मंदिरों और भवनों पर पत्थर की नक्काशी कराने वाले कद्रदान नहीं मिल रहे हैं। शिल्पकार राजेंद्र नाथ कहते हैं कि एक समय पर जब पहाड़ों में हर स्थान पर पत्थरों और मिट्टी के भवन बनते थे, उस समय उनके गांव और आसपास के गांव के शिल्पकारों की बहुत मांग होती थी।

साथ ही जांदरों और सिलबट्टे का भी क्षेत्रीय बाजार था।लेकिन आज अगर मंदिरों में कहीं काम मिल गया तो ठीक, लेकिन उसके अलावा कहीं भी अब इन पत्थर शिल्पकारों के लिए बाजार उपलब्ध नहीं रह गया है। जिससे उनके सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। उत्तरकाशी श्रीकोट गांव के शिल्पकार दिनेश खत्री का कहना है कि उनका परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इस कार्य को कर रहा है। रोजगार के नाम पर कभी-कभार एक मूर्ति और सिलबट्टे बिक जाते हैं। लेकिन आज तक सरकार ने इस समृद्ध विरासत को संजोए रखने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है। जिससे अब नई पीढ़ी का इस अमूल्य कला से मोह भंग होता जा रहा है।

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