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उत्‍तराखंड में मकर संक्रांति का विशेष महत्‍व, जानिए कई रोचक बातें

उत्तराखंडी पर्व-त्योहारों की विशिष्टता यह है कि यह सीधे-सीधे ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हैं। मकर संक्रांति इन्हीं में से एक है। इस संक्रांति को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 14 Jan 2019 12:33 PM (IST)Updated: Mon, 14 Jan 2019 08:39 PM (IST)
उत्‍तराखंड में मकर संक्रांति का विशेष महत्‍व, जानिए कई रोचक बातें
उत्‍तराखंड में मकर संक्रांति का विशेष महत्‍व, जानिए कई रोचक बातें

देहरादून, दिनेश कुकरेती। उत्तराखंड में हर तीज-त्योहार का अपना अलग ही उल्लास है। यहां शायद ही ऐसा कोई पर्व होगा, जो जीवन से अपनापा न जोड़ता हो। ये पर्व-त्योहार उत्तराखंडी संस्कृति के प्रतिनिधि भी हैं और संस्कारों के प्रतिबिंब भी। हम ऐसे ही अनूठे पर्व 'मकरैंण' से आपका परिचय करा रहे हैं। यह पर्व गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है।

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उत्तराखंडी पर्व-त्योहारों की विशिष्टता यह है कि यह सीधे-सीधे ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हैं। मकर संक्रांति इन्हीं में से एक है। इस संक्रांति को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और इसी तिथि से दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं। लेकिन, सबसे अहम् बात है मकर संक्रांति से जीवन के लोक पक्ष का जुड़ा होना। यही वजह है कि कोई इसे उत्तरायणी, कोई मकरैणी (मकरैंण), कोई खिचड़ी संगरांद तो कोई गिंदी कौथिग के रूप में मनाता है। गढ़वाल में इसके यही रूप हैं, जबकि कुमाऊं में घुघुतिया और जौनसार में मकरैंण को मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है।

दरअसल, त्योहार एवं उत्सव देवभूमि के संस्कारों रचे-बसे हैं। पहाड़ की 'पहाड़' जैसी जीवन शैली में वर्षभर किसी न किसी बहाने आने वाले ये पर्व-त्योहार अपने साथ उल्लास एवं उमंगों का खजाना लेकर भी आते हैं। जब पहाड़ में आवागमन के लिए सड़कें नहीं थीं, काम-काज से फुर्सत नहीं मिलती थी, तब यही पर्व-त्योहार जीवन में उल्लास का संचार करते थे। 

ये ही ऐसे मौके होते थे, जब घरों में पकवानों की खुशबू आसपास के वातावरण को महका देती थी। दूर-दराज ब्याही बेटियों को इन मौकों पर लगने वाले मेलों का बेसब्री से इंतजार रहता था। यही मौके रिश्ते तलाशने के बहाने भी बनते थे। आज भी मकरैंण पर पूरे उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर इसी तरह मेलों का आयोजन होता है।

अनूठी है थलनदी व डाडामंडी की गिंदी

मकरैंण पर पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लॉक स्थितथलनदी नामक स्थान पर लगने वाले गिंदी कौथिग का पौराणिक स्वरूप स्थानीय लोग आज भी कायम रखे हुए हैं। यह गिंदी क्षेत्र की दो पट्टियों के बीच खेली जाती है। इसी तरह दुगड्डा ब्लॉक के डाडामंडी नामक स्थान पर भी गिंदी कौथिग आयोजित होता है।

शुरू हो जाते हैं मांगलिक कार्य

उत्तरायण में हिंदू परंपरा अपने मांगलिक कार्यों का शुभारंभ कर देती है, जो दक्षिणायन के कारण रुके रहते हैं। 'रत्नमाला' में कहा गया है कि व्रतबंध, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश, देव प्रतिष्ठा, विवाह, चौल, मुंडन आदि शुभकार्य उत्तरायणी में करें। ऋतु परिवर्तन के प्रतीक इस पर्व पर किए जाने वाले स्नान आदि के कारण व्यक्ति में जो उत्साह पैदा होता है, उसका महत्व भी सर्वविदित है। वास्तविकता यह है कि पर्व और त्योहार हमारे जीवन की निष्क्रियता और उदासीनता को दूर कर हमें जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय होने के प्रेरणा देते हैं और व्यक्ति एवं समाज की जीवनधारा को निरंतर गतिमान बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

जीव जगत से अपनापा जोड़ने का पर्व

कुमाऊं में मकरैण को घुघुतिया त्योहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन गुड़ व चीनी मिलाकर आटे को गूंथा जाता है। फिर घुघते बना उसे घी या तेल में तलकर उसकी माला बनाते हैं। बच्चे इन मालाओं को गले में पहन कौवों व अन्य पक्षियों को कुछ इस तरह आमंत्रित करते हैं- 'काले कव्वा काले, घुघुती मावा खाले'।

आटे से बनती हैं ढाल-तलवार की अनुकृतियां

उत्तरायणी के दिन सरयू व गोमती के तट पर बागेश्वर में लगने वाले मेले का भी अतीत में धार्मिक एवं सांस्कृतिक के साथ ही व्यापारिक व ऐतिहासिक महत्व रहा है। घुघुतों के अलावा ढाल-तलवार की इसी आटे से बनीं अनुकृतियां तथा दाड़ि‍म, संतरा आदि को भी माला के रूप में पिरोकर उसे बच्चों के गले में डाला जाता है। जाड़ों में पक्षी ठंड से बचने मैदानों को चले जाते हैं और यह माना जाता है कि मकर संक्रांति से वे लौटना शुरू कर देते हैं।

पांचाली की प्रतिज्ञा पूर्ण करने का पर्व मरोज

जौनसार-बावर की यमुना घाटी में मकर संक्रांति का पर्व महीने के मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है, जो पूरे माघ चलता है। इस मौके पर सभी लोग अपने परिवार की कुशलता हेतु बकरे की बलि देते हैं। मान्यता है कि पांडवकालीन संस्कृति के अनुरूप चलते आज तक इस जनजातीय क्षेत्र की महिलाओं द्वारा बकरे को दु:शासन का प्रतीक मानकर उसकी बलि देकर पांचाली की प्रतिज्ञा पूर्ण की जाती है। साथ ही माघ त्योहार के समय बेटियों व अतिथियों का भरपूर स्वागत किया जाता है। उन्हें लोग अपने-अपने घरों में भोजन हेतु आमंत्रित करते हैं।

इसलिए पड़ा खिचड़ी संगरांद नाम

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राशियों की संख्या 12 है। प्रत्येक राशि में सूर्य लगभग एक मास तक रहता है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के संक्रमण को संक्रांति कहते हैं। इन 12 राशियों में से जिन चार राशियों- मेष, कर्क, तुला व मकर में सूर्य संक्रमण करता है तो वे मास होते हैं, बैशाख, श्रावण, कार्तिक और माघ। मकर राशि का स्वामी शनि है, इसलिए इस पर्व पर तिल, गुड़, जौ, चावल आदि का दानकर स्वयं खिचड़ी खाने का विधान है। यही वजह है कि इस पर्व का नाम ही खिचड़ी संगरांद पड़ गया।

आयुर्वेद की दृष्टि में मकरैंण

'आयुर्वेद सार संहिता' में इन दिनों तिल-गुड़ के सम्मिश्रण से बने पदार्थों के सेवन को स्वास्थ्यवर्द्धक एवं बलवर्द्धक बताया गया है। यही वजह है कि देश के समस्त हिस्सों में मकर संक्रांति पर तिल, गुड़, खिचड़ी आदि का सेवन सर्वोत्तम माना जाता है।

72 से 90 साल में बदल जाती है संक्रांति

खगोल शास्त्रियों के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए 72 से 90 सालों में एक डिग्री पीछे हो जाती है। इस कारण सूर्य एक दिन देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। वर्ष 2014 से 2016 तक मकर संक्रांति 15 जनवरी और वर्ष 2017 व 2018 में 14 जनवरी को थी, जबकि वर्ष 2019 व 2020 में 15 जनवरी को मनाई जाएगी। इससे पहले वर्ष 1900 से 2000 तक यह पर्व 13 व 14 जनवरी को मनाया गया था। बीच में वर्ष 1933 व 1938 सहित कुछ साल संक्रांति 13 जनवरी को भी मनाई गई। असल में हर साल सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने के समय में कुछ मिनट का विलंब होता है, जिससे हर साल यह समय बढ़ता रहता है। लगभग 80 से सौ साल में यह समय एक दिन आगे बढ़ जाता है। इस तरह वर्ष 2080 से यह पर्व 15 व 16 जनवरी को मनाया जाने लगेगा।

मकर संक्रांति के मुहूर्त

  • पुण्य काल : 15 जनवरी सुबह 7.18 बजे से दोपहर 12.30 बजे तक।
  • महापुण्य काल: 15 जनवरी सुबह 7.18 बजे से सुबह 9.02 बजे तक।

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