विक्रमी नववर्ष और नवरात्र का संगम, जानिए क्यों है खास
चैत्र प्रतिपदा से विक्रमी नववर्ष शुरू होता है और वासंतिक नवरात्र भी इसी माह आते हैं। इसलिए इन्हें चैत्र नवरात्र कहा जाता है।
देहरादून, [जेएनएन]: चैत्र प्रतिपदा से विक्रमी नववर्ष शुरू होता है और वासंतिक नवरात्र भी इसी माह आते हैं। इसलिए इन्हें चैत्र नवरात्र कहा जाता है। इस अवधि में मौसम का मिजाज में धीरे-धीरे गर्माहट आने लगती है। सो, इन बदलावों का असर हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ना स्वाभाविक है। शरीर को इन्हीं बदलावों से बचाने के लिए भारतीय ऋषि-मुनियों ने मौसम के संधिकाल में नवरात्र के नौ दिन व्रत रखने की व्यवस्था की, ताकि नियम-संयम में रहकर हम अपने शरीर को मौसम के अनुरूप ढाल सकें।
नवरात्र यानी शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा की उपासना के दिन। मौसम के बदलाव के साथ उपासना के माध्यम से हम मां दुर्गा से नए साल को हर्षोल्लास से मनाने के लिए शक्ति का प्रसाद मांगते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हम विरेचन, सफाई या शुद्धि तो प्रतिदिन करते हैं, किंतु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए ऋतु परिवर्तन पर सफाई अभियान चलाया जाता है।
सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन-मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
चैत्र नवरात्र पूजन की तिथि
18 मार्च : पहला नवरात्र
19 मार्च : दूसरा नवरात्र
20 मार्च : तीसरा नवरात्र
21 मार्च : चौथा नवरात्र
22 मार्च : पांचवां नवरात्र
23 मार्च : छठा नवरात्र
24 मार्च : सातवां व आठवां नवरात्र
25 मार्च : रामनवमी पूजन
26 मार्च : नवरात्र पारण
ब्याहता बेटी को दी जाती है भिटौली
उत्तराखंड की एक विशिष्ट परंपरा है, जिसका निर्वाह चैत्र में होता है। 'भिटौली' यानी भेंट या मुलाकात। प्रत्येक विवाहित लड़की के मैती (मायके वाले) चैत्र में उसकी ससुराल जाते हैं। साथ में ले जाते हैं बेटी के लिए घर में बने पारंपरिक व्यंजन (दाल के भरे हुए स्वाले), फल, वस्त्र आदि। शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को बैशाख में दी जाती है और फिर हर वर्ष चैत्र में।
यह एक अत्यंत भावनात्मक परंपरा है। लड़की चाहे कितने ही संपन्न परिवार में ब्याही गई हो, उसे मायके से आने वाली भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है। इस इंतजार को लोक गायकों ने लोकगीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है। यथा, 'ना बासा घुघुती चैता की, खुद लगीं छ मां मैता की।' समय के साथ हालांकि दूरियां काफी सिमट चुकी हैं, लेकिन एक विवाहिता के हृदय में मायकेके प्रति संवेदनाएं और भावनाएं शायद ही कभी बदल पाएंगी। इसीलिए सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी पहले की तरह कायम है।
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