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राजाजी पार्क के बीच से गुजरने वाली रेलवे लाइन गजराज के लिए बनी काल

राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में रेल यातायात काफी समृद्ध हुआ है लेकिन इस तस्वीर का स्याह पहलू भी है। राजाजी पार्क के बीच से गुजरने वाली हरिद्वार-देहरादून रेलवे लाइन गजराज के लिए काल साबित हो रही है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Tue, 24 Nov 2020 08:02 PM (IST)Updated: Wed, 25 Nov 2020 12:16 AM (IST)
राजाजी पार्क के बीच से गुजरने वाली रेलवे लाइन गजराज के लिए बनी काल
लच्छीवाला में रेलवे ट्रेक पर ट्रेन की टक्कर से हाथी की मौत के बाद जांच करते वनकर्मी। फाइल फोटो

देहरादून, विजय मिश्रा। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में रेल यातायात काफी समृद्ध हुआ है, लेकिन इस तस्वीर का स्याह पहलू भी है। राजाजी पार्क के बीच से गुजरने वाली हरिद्वार-देहरादून रेलवे लाइन गजराज के लिए काल साबित हो रही है। तकरीबन 40 किलोमीटर लंबी इस रेल लाइन में ट्रेनों की आवाजाही के कारण बीते 20 वर्ष में गजराज के कुनबे के 17 सदस्य असमय काल का ग्रास बन चुके हैं। प्रदेश में गजराज के बढ़ते कुनबे के लिए यह दुखद संयोग है। इस रेल लाइन से हाथियों की सुरक्षा के लिए बातें तो खूब हुई हैं, मगर धरातल पर काम की इच्छाशक्ति हमेशा नदारद रही। फिर चाहे बात रेल लाइन के किनारे फेंसिंग की हो, या गजराज की आवाजाही के लिए नए गलियारे बनाने की। हर योजना दावों तक ही सिमटी रही। नया हादसा होता है तो चर्चा के नाम पर इन योजनाओं से धूल जरूर झाड़ दी जाती है। इसके बाद सब फिर से ठंडे बस्ते में।

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रफ्तार नहीं, जिंदगी चुनें

रफ्तार का शौक रोमांचित तो करता है, मगर कई बार इसकी कीमत जान देकर या किसी मासूम की जान लेकर चुकानी पड़ती है। अकेले दून में ही पिछले तीन वर्ष में हुए सड़क हादसों में 48 फीसद की वजह तेज रफ्तार रही। पहाड़ों में भी सड़कों की खराब हालत के बाद सबसे ज्यादा हादसे रफ्तार की अधिकता के कारण होते हैं। हर साल सड़क सुरक्षा सप्ताह में सरकार से लेकर पुलिस तक हमें यातायात नियमों का पाठ पढ़ाती है। यह अलग बात है कि अधिकतर लोग इस पाठ को चंद मिनट बाद ही भूल जाते हैं। सवाल यह है कि आखिर लोग यातायात नियमों को गंभीरता से क्यों नहीं लेते। कहीं न कहीं इसमें सिस्टम की लापरवाही का भी योगदान है। अगर इस आपदा से पार पाना है तो सरकार को और सख्ती बरतनी होगी। हमें भी जीवन का मोल समझना होगा। रफ्तार जिंदगी से ज्यादा मायने तो नहीं रखती। 

ऐसे नहीं मिलेगी मंजिल

जिस प्रदेश की आधी आबादी यानी महिलाएं हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रही हों, वहां महिलाओं का मतदाता बनने में पिछड़ना काफी सालता है। खासकर देहरादून जैसे जिले में। जहां न सिर्फ प्रदेश की राजधानी है, बल्कि आबादी का बड़ा हिस्सा सुशिक्षित है और अपने हक-हकूकों को लेकर जागरूक भी। बावजूद इसके देहरादून में एक हजार पुरुष मतदाताओं पर महिला मतदाताओं की संख्या सिर्फ 890 है। यह संख्या जिले के लिंगानुपात से भी कम है। पिछली जनगणना के मुताबिक जिले में एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 902 है। देश और प्रदेश को प्रगति के पथ पर आगे ले जाने में महिलाओं की आधी हिस्सेदारी तभी संभव है, जब वो खुद आगे आएंगी। निर्भीक होकर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगी और सत्ता तक पहुंचेंगी। उत्तराखंड जैसे राज्य में भी यह जरूरी है। जहां विधानसभा में मातृशक्ति की संख्या दोहरे आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पा रही है।

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निगरानी तंत्र का ढहना

सरकारी अमलों में अधिकारियों-कर्मचारियों की लंबी फौज है। हर माह इनके वेतन पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। इस उद्देश्य से कि जनहित के कार्य समय पर और व्यवस्थित तरीके से हो सकें। लेकिन, सरकारी सिस्टम विकास कार्यों की निगरानी को लेकर कितना गंभीर है, बदरीनाथ राजमार्ग पर गूलर के समीप टूटा निर्माणाधीन पुल इसका ताजा उदाहरण है। नदी तल से तकरीबन 22 मीटर ऊंचाई पर किए जा रहे इस निर्माण कार्य के लिए श्रमिकों को हेलमेट तक नहीं दिए गए थे। घटना के वक्त कार्यस्थल पर न तो कंपनी के इंजीनियर मौजूद थे और न सुरक्षा के उचित प्रबंध। इस लापरवाही के लिए कंपनी और ठेकेदार पर भले मुकदमा दर्ज हो गया है, लेकिन सवाल यह है कि उस निगरानी तंत्र का क्या, जिसके कंधे पर यहां व्यवस्था चाक-चौबंद रखने की जिम्मेदारी थी। तंत्र अपना कार्य ईमानदारी से करता तो एक परिवार को बेसहारा न होना पड़ता। 

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