उत्तराखंड में पुलिस रेंज बढ़ाने की योजना फाइलों में गुम, पढ़िए पूरी खबर
बेहतर कानून-व्यवस्था का सपना हर सरकार ने दिखाया। इसे दुरुस्त करने के लिए खूब कागजी घोड़े दौड़ाए योजनाएं बनी और फाइलों में गुम होकर रह गई।
देहरादून, विकास गुसाईं। प्रदेश में बेहतर कानून-व्यवस्था का सपना हर सरकार ने दिखाया। इसे दुरुस्त करने के लिए खूब कागजी घोड़े दौड़ाए, योजनाएं बनी और फाइलों में गुम होकर रह गई। इनमें से एक योजना प्रदेश में पुलिस रेंज की संख्या बढ़ाने की थी। तब कहा गया कि रेंज की संख्या बढ़ाने से इन स्थानों पर बेहतर पुलिसिंग की जा सकेगी। साल 2013 के अंत में इस योजना का खाका खींचा गया और वर्ष 2014 में शासन में इस पर कवायद चली। देहरादून और नैनीताल की मौजूदा रेंज के साथ ही अल्मोड़ा और हरिद्वार में दो नई रेंज बनानी प्रस्तावित की गई। शासन में यह मामला ऐसा उलझा कि पुलिस रेंज कभी फाइलों से बाहर ही नहीं निकल पाई। उत्तर प्रदेश में पुलिस रेंज की संख्या बढऩे के बाद यहां भी इसकी सुगबुगाहट शुरू तो हुई, लेकिन आला अधिकारियों ने फाइलों पर उतारने से पहले ही इसके औचित्य को सिरे से नकार दिया।
इंतजार एक हेलीकॉप्टर का
साहब लोगों की चाहत भी एक अदद हेलीकॉप्टर की रही है। राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को इस संबंध में पत्र भेजा जा चुका है लेकिन अभी तक मंजूरी नहीं मिल पाई है। इस कारण अब लंबे समय से पुलिस के लिए हेलीकॉप्टर खरीद का मामला खट्टे अंगूर की तरह बनकर रह गया है। दरअसल, प्रदेश में कानून-व्यवस्था के रखवाले होने के कारण साहब लोग अपना रसूख भी चाहते थे। आपात स्थिति में कहीं भी तुरंत आने जाने के लिए इसकी जरूरत बताई गई लेकिन राज्य सरकार ने इसे तवज्जो नहीं दी। केदारनाथ में वर्ष 2013 में आई आपदा के बाद एक बार फिर पुलिस ने इसके लिए जोर दिया। इसके लिए बाकायदा पुलिस आधुनिकीकरण के तहत एकप्रस्ताव भेजकर बजट देने का अनुरोध किया गया। केंद्र ने इसके लिए भी स्वीकृति नहीं दी। इसके बाद से ही अधिकारियों ने हेलीकॉप्टर खरीद की फाइल बंद कर रख दी है।
दम तोड़ते वायरलेस सेट
मंशा थी नियमों को धता बताने वाले वाहनों को पकडऩे की। ऐसे वाहनों पर तुरंत कार्यवाही करने को खरीदे गए लाखों के वायरलेस सेट। विभाग की लचर कार्यशैली के चलते आज स्थिति यह है कि इन वायरलेस सेट का कोई नामलेवा तक नहीं है। यहां बात हो रही है चार धाम यात्रा मार्ग पर दुर्घटनाओं पर रोक लगाने और जांच दुरुस्त करने के लिए वर्ष 2009 में 40 लाख की लागत से खरीदे गए वायरलेस सेट की। इन्हें खरीदने के साथ ही टावर लगाए गए। अधिकारियों की गजब कार्यशैली यह कि कुछ दिनों बाद ही मोबाइल फोन भी खरीद लिए गए। उम्मीद के मुताबिक वायरलेस सेट पर मोबाइल फोन भारी पड़े। नतीजतन, वर्ष 2010 में ही वायरलेस सेट दम तोड़ गए। इस पर घपले की आशंका भी जताई गई। पत्रावली तैयार हुई लेकिन वह भी वायरलेस सेट के ढांचे की तरह ही है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं है।
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नाम का आइस रिंक
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का एकमात्र आइस स्केटिंग रिंक, निर्माण में 80 करोड़ रुपये खर्च हुए। उम्मीद जताई गई कि इससे न केवल उत्तराखंड बल्कि देश-विदेश की खेल प्रतिभाओं को एक मंच मिलेगा। यह सरकारी उदासीनता की ऐसी भेंट चढ़ा कि मात्र एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता कराने के बाद यह बीते आठ वर्षों से बंद है। संचालन के लिए दो वर्ष पूर्व इसे निजी कंपनी को सौंपा गया लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाया।
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दरअसल, वर्ष 2011 में सैफ विंटर खेलों के लिए देहरादून में अंतरराष्ट्रीय स्तर के आइस स्केटिंग रिंक का निर्माण किया गया। प्रतियोगिता के बाद इसके संचालन का जिम्मा पर्यटन विभाग को सौंपा गया। 2011-12 में नाम के लिए प्रतियोगिताएं हुईं। बाद में इसका जिम्मा खेल विभाग को सौंपा गया, जो इसे संचालित ही नहीं कर पाया। तकरीबन दो वर्ष पूर्व इसे एक निजी कंपनी को सौंपा गया लेकिन रिंक अब भी संचालित नहीं हो पाया है।
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