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गांव तक सिमटा लोक में रचा-बसा उत्तराखंड का ये त्योहार, जानिए

गढ़वाल में मनार्इ जाने वाली बग्वाल (दीपावली) को अब लोग तरजीह नहीं दे रहे हैं। बाजारवाद के इस दौर में वे सिर्फ दीपावली को ही तरजीह दे रहे हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sun, 04 Nov 2018 05:43 PM (IST)Updated: Sun, 04 Nov 2018 08:28 PM (IST)
गांव तक सिमटा लोक में रचा-बसा उत्तराखंड का ये त्योहार, जानिए
गांव तक सिमटा लोक में रचा-बसा उत्तराखंड का ये त्योहार, जानिए

देहरादून, [जेएनएन]: बाजारवाद के इस दौर में पहाड़ की लोक परंपराएं भी क्षीण हुई हैं। पहले गढ़वाल में बग्वाल (दीपावली) से बड़ी मान्यता छोटी बग्वाल की हुआ करती थी, लेकिन अब छोटी बग्वाल मनाने वाले लोग शहरों में आकर सिर्फ दीपावली को ही तरजीह देते हैं। बग्वाल उनके लिए अब गांवभर का आयोजन रह गई है। 

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बग्वाल उत्तराखंड का ऐसा ग्राम्य पर्व है, जिसे शरद ऋतु के आगमन पर पारंपरिक हर्षोल्लास से मनाया जाता रहा है। एक दौर में जब पहाड़ की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां आज से सर्वथा भिन्न थीं, मनोरंजन के साधन नहीं थे, दैनिक कार्यों के लिए प्रकृति पर निर्भरता अधिक थी, तब यहां का लोक व्यवहार भी इन परिस्थितियों से प्रभावित होता था। लोग बग्वाल के मौके पर घरों व आसपास की साफ-सफाई कर रात को घर-बाहर दीये जलाकर रोशनी करते थे। इस दौरान थडिय़ा-चौंफला की सुरलहरियां वातावरण को आनंदित कर देती थीं । दीप पर्व का चरमोत्कर्ष होता था देर रात तक खेला जाने वाला भैला। 

भैलो की चिंगारियों में मंगल का गान 

भैला (भैलो या बेलो) खेलने के लिए भ्यूंल (भीमल) की छाल के रेशों (स्योलु) से तैयार रस्सी (बेल) पर चीड़ की ज्वलनशील लकड़ी (छिल्ले) या भ्यूंल की सूखी टहनियों (क्याड़ा) के गुच्छों को बांधकर भैला तैयार किया जाता। इन भैलो को किसी ऊंचे सार्वजनिक स्थल पर मशाल की तरह जलाकर नाचते-गाते सिर के ऊपर गोल-गोल घुमाया जाता था। भैला खेलते हुए नाचते-गाते गांवभर में और गांव के चारों ओर घूमने का क्रम आधी रात के बाद भी चलता रहता था। 

प्रकृति की पूजा, संस्कृति का संरक्षण 

दीपावली के दौरान धनतेरस से गोवंश की सेवा करने का रिवाज भी पहाड़ में रहा है। तब गायों को गोग्रास या गोपूड़ी से जिमाया जाता था। गोवंश के सींगों पर तेल लगाकर उनके खुरों की सफाई की जाती और फिर उन्हें माला पहनाई जाती। चरने के लिए जंगल ले जाने के बजाय अच्छी घास खूंटे पर ही खिलाई जाती। इस सब में बड़ों के साथ ही बच्चे भी उत्साह के साथ भाग लिया करते थे। प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए इस दौरान लोग उरख्याली-गंज्यालि, प्राकृतिक जलस्रोत (धारा, मंगरा, पंदेरा), स्थानीय देवता (भूम्याल, क्षेत्रपाल), ग्राम देवता, पर्वत, नदी आदि की श्रद्धा के साथ पूजा करते थे। नाते-रिश्तेदारों के आगमन से त्योहार की चहल-पहल काफी बढ़ जाती थी। 

झिलमिल-झिलमिल, दिवा जगी गैनि 

अंतराल के गांवों में आज भी बग्वाल के दिन हर घर में स्वाले (भूड़े), दाल के पकौड़े, भरे स्वाले आदि पकवान बनाए जाते हैं और वातावरण में गूंजने लगते हैं उल्लास के गीत। ऐसा प्रतीत होता है, मानो स्वयं प्रकृति गा रही हो, 'झिलमिल-झिलमिल, दिवा जगी गैनि, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वाल।' इस दिन गोवंश यानी गाय-बछड़ों और बैलों की पूजा की जाती है। फिर उनके लिए भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे का फीका हलुवा) और जौ के आटे से लड्डू तैयार कर उन्हें परात या थाली पर सजाया जाता है। इस थाली को बग्वाली फूलों (चौलाई के फूल) से सजाया जाता है। गोवंश के पैर धोकर धूप-दीप से उनकी आरती उतारी जाती है और टीका लगाने के बाद उनके सींगों पर तेल लगाया जाता है। इसके उपरांत उनको श्रद्धापूर्वक परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। 

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