वर्ष 1948 में सुंदरलाल बहुगुणा गांधीजी से मिले, तब गांधी जी ने कहा था- तुम अहिंसा को धरती पर उतार लाए
तब पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की उम्र करीब 22 साल रही होगी जब उन्हें गांधीजी से मिलने का सुअवसर मिला। तारीख थी 29 जनवरी और वर्ष था 1948। यानी गांधीजी के दुनिया को अलविदा कहने से एक दिन पहले।
जागरण संवाददाता, देहरादून। तब पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की उम्र करीब 22 साल रही होगी, जब उन्हें गांधीजी से मिलने का सुअवसर मिला। तारीख थी 29 जनवरी और वर्ष था 1948। यानी गांधीजी के दुनिया को अलविदा कहने से एक दिन पहले। तब बहुगुणा टिहरी प्रजामंडल के सक्रिय सदस्य थे और प्रजामंडल के सूचना एवं प्रसारण विभाग की जिम्मेदारी भी उन्हीं के पास थी। आजादी की लड़ाई के बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ टिहरी को राजशाही से मुक्ति दिलाने का बिगुल फूंक दिया था।
अपने संस्मरण में बहुगुणा लिखते हैं, ‘मेरा तरीका भी पूरी तरह गांधीजी की तरह की अहिंसावादी था। मैं आंदोलन से जुड़ी हर जानकारी को एक निश्चित अंतराल में सरदार बल्लभ भाई पटेल तक पहुंचाता था। इसी सिलसिले में मैं पटेल से मिलने दिल्ली गया था। इसी दौरान मुझे गांधीजी से मिलने का मौका मिला। जब मैं दिल्ली स्थित बिड़ला भवन पहुंचा तो गांधीजी को बताया कि टिहरी राजशाही के खिलाफ आंदोलन के दौरान मेरे साथी मोलू सिंह भरदारी और नागेंद्र सकलानी लड़ते हुए शहीद हो गए।
उनकी शहादत से जनाक्रोश इस कदर बढ़ गया कि लोगों का हुजूम एक झटके में राजशाही के खात्मे के लिए निकल पड़ा था। ऐसे विकट समय में मैंने अपने कुछ साथियों के साथ न सिर्फ राजा मानवेंद्र शाह और उनकी रानी का बचाव किया, बल्कि कई पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को जेल में छिपाकर उनकी जान बचाई।’ बहुगुणा की यह बात सुनकर गांधीजी बेहद खुश हुए और पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘तुम हिमालय में जितनी ऊंचाई पर रहते हो उतना ही ऊंचा काम भी किया है। आज तुम मेरी अहिंसा को धरती पर ले आए।’
बहुगुणा लिखते हैं, गांधीजी का आशीष लेकर अगले दिन मैं दिल्ली से वापस लौट आया। 30 जनवरी को ट्रेन से वापसी का सफर कर ही रहा था कि रास्ते में रेडियो पर संदेश मिला, ‘गांधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी गई है।’ यह खबर सुनते ही कुछ पल के लिए मैं जड़वत हो गया। समझ नहीं आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया। गांधीजी की वह बात रह-रहकर कानों में गूंज रही थी कि ‘मैं मरने से पहले देश को आजाद होते देखना चाहता था और वह ख्वाब पूरा हो चुका है।’ खैर! मैं भारी मन से वापस लौटा और प्रण कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, ताउम्र गांधीजी के बताए अहिंसावादी मार्ग पर ही आगे बढ़ता रहूंगा।
इसके बाद देश में तय किया गया कि 12 फरवरी 1949 को गांधीजी की अस्थियां गंगा में विसर्जति की जाएंगी। मैं भी उनकी अस्थियां लेने पहुंचा और उन्हें लेकर गंगोत्री की तरफ रवाना हो गया। हालांकि, बर्फ अत्याधिक होने के कारण मैं गंगोत्री तक नहीं पहुंच पाया और उत्तरकाशी से कुछ आगे जाकर मनेरी में गांधीजी की अस्थियों को गंगा में विसर्जति किया।’ बहुगुणा आगे लिखते हैं, ‘आज उम्र के आखिरी पड़ाव में इस बात का संतोष है कि गांधीजी का आशीष मेरे लिए सबसे बड़ी प्रेरणा बना और बिना विचलित हुए मैं उनके मार्ग पर आगे बढ़ता रहा।’
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