अफसोस, अभी तक बेनामी संपत्ति कानून की योजना नहीं उतर पाई धरातल पर
बेनामी संपत्ति राज्य सरकार में निहित होगी तो सरकारी योजनाओं के लिए जमीन मिल सकेगी। अफसोस अभी तक यह योजना धरातल पर नहीं उतर पाई है।
देहरादून, विकास गुसाईं। प्रदेश में भ्रष्ट राजनीतिज्ञ, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की बेनामी संपत्ति को सामने लाने की कसमें खाई गईं। इसके लिए सख्त कानून बनाने की बात हुई। आमजन से सुझाव लेकर इसे अमलीजामा पहनाने का खाका खींचने का सपना दिखाया गया। लगा कि अब अच्छे दिन आने ही वाले हैं। बेनामी संपत्ति राज्य सरकार में निहित होगी तो सरकारी योजनाओं के लिए जमीन मिल सकेगी। अफसोस, अभी तक यह योजना धरातल पर नहीं उतर पाई है।
दरअसल, कहा गया कि प्रदेश में सभी बेनामी संपत्तियों की सूची तैयार की जाएगी। इसके लिए संपत्ति खरीद करने वाले व्यक्ति की आय के स्रोत, अचल संपत्ति की खरीद के बाद मौजूदा प्रकृति, खरीद करने के कारण आदि बिंदु शामिल कर जांच होगी, जिससे की बेनामी संपत्ति को आसानी से पकड़ा जा सकेगा। अफसोस, राजनीतिक कारणों से योजना का खाका खींचा गया और आज राजनीतिक कारणों से ही यह ठंडे बस्ते में भी चली गई है।
महिला सुरक्षा को पैनिक बटन
प्रदेश में महिलाओं को सफर के दौरान सुरक्षा देने की मंशा अभी तक परवान नहीं चढ़ पाई है। कारण यह कि प्रदेश में अभी भी पुराने व्यावसायिक वाहनों में पैनिक बटन लगाने में विभाग सफल नहीं हो पाया है। यह आलम तब है जब सुप्रीम कोर्ट भी इस संबंध में दिशानिर्देश जारी कर चुका है। दरअसल, प्रदेश में इस समय सार्वजनिक परिवहन के रूप में तकरीबन छह हजार बसें व 50 हजार टैक्सियां चल रही हैं। निर्भया कांड के बाद सार्वजनिक परिवहन के रूप में इस्तेमाल होने वाले सभी वाहनों में पैनिक बटन लगाने का निर्णय लिया गया था। मकसद यह कि सफर में महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों का असर यह हुआ कि फिलहाल नए वाहनों में पैनिक बटन लगे हुए आ रहे हैं लेकिन पुराने वाहनों में यह व्यवस्था नहीं है। इससे सुरक्षित सफर के दावे फिलहाल हवा में ही हैं।
सीबीआइ को अनुमति का इंतजार
पहले तो प्रदेश सरकार सीबीआइ से जांच कराने के लिए अनुमति का इंतजार करती रही। पांच साल बाद अचानक सीबीआइ को इसकी याद आई और उसने कर्मचारियों को चिह्नित करते हुए कार्रवाई की अनुमति मांगी तो अब प्रदेश सरकार साइलेंट मोड में चली गई है। सीबीआइ द्वारा रिमाइंडर भेजे जाने के बावजूद तकरीबन छह माह से सरकार ने इस पर कोई निर्णय नहीं लिया है। अब कोरोना काल में स्वास्थ्य महकमे के कार्मिकों को इससे अभयदान सा मिलता नजर आ रहा है। यह पूरा मामला जुड़ा है एनआरएचएम घोटाले से। वर्ष 2010 में रुड़की के एक नाले में बड़ी संख्या में दवाईयां मिलने के बाद मामला सामने आया था। वर्षों तक चली जांच में कोई निष्कर्ष न निकलने पर इसे सीबीआइ को सौंपने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2015 में सरकार ने सीबीआइ से जांच का अनुरोध किया। 2019 में सीबीआइ ने इसका जवाब दिया। अब सरकार चुप्पी साधे है।
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पांच साल से जांच जारी
पांच साल पूर्व सेवानिवृत्ति के दिन आरोप पत्र दिया गया। शासन ने आरोपों को सही पाया तो ट्रिब्यूनल ने भी जुर्माना तय किया। बावजूद इसके शासन में आज तक मामले की जांच जारी है। यहां बात हो रही है उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी की, जिन पर सेवा के दौरान राजपुर के संरक्षित वन क्षेत्र में अवैध रूप से जमीन खरीदने और पेड़ कटान के आरोप लगे थे। जांच चलने के कारण उन्हें आज तक पूरी पेंशन नहीं मिल पाई है। शासन में भी जांच का सिलसिला जारी है। पहले जांच अधिकारी ने एक बार जांच की तो विधिक कारणों से पूरी नहीं हो पाई। जब दोबारा उन्हें जांच सौंपी गई तो सेवानिवृत्ति की कगार पर होने के कारण उन्होंने इसे लेने से इन्कार कर दिया। इसके तकरीबन एक वर्ष बाद सरकार ने बीते वर्ष अगस्त में एक सेवानिवृत्त अधिकारी को यह जांच सौंपी, जिनसे अभी तक रिपोर्ट नहीं मिली है।
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