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रूपकुंड के नरकंकालों का रहस्य और गहराया, असमंजस में पड़े वैज्ञानिक

चमोली के रूपकुंड में बिखरे पड़े नरकंकालों का रहस्य सुलझाने के करीब पहुंचे ही थे कि यह रहस्य अब और उलझ गया। इसके साथ ही नया रहस्य यह भी पैदा हो गया

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 29 Aug 2019 09:12 PM (IST)Updated: Fri, 30 Aug 2019 08:40 PM (IST)
रूपकुंड के नरकंकालों का रहस्य और गहराया, असमंजस में पड़े वैज्ञानिक
रूपकुंड के नरकंकालों का रहस्य और गहराया, असमंजस में पड़े वैज्ञानिक

देहरादून, सुमन सेमवाल। देश और दुनिया के वैज्ञानिक उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में 5,029 मीटर की ऊंचाई पर चमोली के रूपकुंड में बिखरे पड़े नरकंकालों का रहस्य सुलझाने के करीब पहुंचे ही थे कि यह रहस्य अब और उलझ गया। करीब 77 साल बाद वैज्ञानिकों ने नरकंकालों की डीएनए जांच के बाद यह तो स्पष्ट कर दिया कि कंकाल भारतीय लोगों के अलावा ईस्टर्न मेडिटेरेनियन व साउथईस्ट एशियाई देशों के लोगों के भी हैं, मगर इसके साथ ही नया रहस्य यह भी पैदा हो गया कि दूसरे देशों के लोगों को हजारों मील दूर इस अति दुर्गम क्षेत्र में क्यों आना पड़ा?

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जिस 'एनिसेंट डीएनए फ्रॉम दि स्केलेटंस ऑफ रूपकुंड लेक रिवेल्स मेडिटेरियन माइग्रेंट्स इन इंडियाÓ नामक शोधपत्र में रूपकुंड के नरकंकालों पर नया खुलासा किया गया, उसके सह लेखकों के रूप में देहरादून स्थित मानव विज्ञान सर्वेक्षण के कार्यालय प्रमुख हर्षवर्धन व मानवविज्ञानी मानवेंद्र बत्र्वाल भी शामिल हैं। इस रहस्य को अभी और गहरा बताने वाली बात भी देहरादून के मानवविज्ञानियों ने कही है। देहरादून का यह कार्यालय (उत्तरी क्षेत्र का केंद्र) अभी भी रूपकुंड के रहस्य को सुलझाने की दिशा में काम कर रहा है। मानवविज्ञानी मानवेंद्र बत्र्वाल का कहना है कि नरकंकालों की रेडियो कार्बन डेटिंग भी की गई और पता चला कि जो 23 नरकंकाल भारतीयों के पाए गए और उनके मरने की अवधि सातवीं से 10वीं शताब्दी आंकी गई है।

दूसरी तरफ 14 नरकंकाल ईस्टर्न मेडिटेरेनियन व साउथईस्ट एशियाई देशों के लोगों के पाए गए और इनकी अवधि 17वींं से 20वीं शताब्दी के बीच पाई गई। इससे यह भी पता चलता है कि रूपकुंड में लोगों के आने का सिलसिला पौराणिक समय से रहा है और वहां हादसे भी होते रहे हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्र में हिमस्खलन आदि से हादसे होने की बात को समझ में आती है, मगर वहां हजारों साल पहले से लोगों के जाने के सिलसिले का कारण अभी पूरी तरह सुलझ नहीं पाया है। लिहाजा, मानव विज्ञान सर्वेक्षण कार्यालय डीएनए जांच व रूपकुंड क्षेत्र से जुड़ी पौराणिक किवदंतियों के तार आपस में जोड़कर रहस्य को उजागर करने में फिर से जुट गया है।

नंदा राजजात की रही है अंतरराष्ट्रीय मान्यता

मानवविज्ञानी मानवेंद्र बत्र्वाल बताते हैं कि ईस्टर्न मेडिटेरेनियन क्षेत्र में ग्रीस, लेबनान, सीरिया, इजराइल, जैसे देश आते हैं, जबकि साउथईस्ट एशिया क्षेत्र में इंडोनेशिया, वियतनाम, सिंगापुर, मलेशिया, कंबोडिया जैसे देश शामिल हैं। हजारों मील दूर बसे इन देशों के लोग किसी आक्रमण के तहत भी यहां नहीं आए थे, क्योंकि नरकंकालों के इर्द-गिर्द हथियार भी नहीं मिले हैं। हिमालय की सबसे बड़ी नंदा राजजात यात्रा करने के लिए छंतोली(छतरी), चलने के लिए  डंडे आदि रूपकुंड में बड़ी संख्या में मिले हैं। इससे इस बात को बल मिलता है कि जिन भी लोगों के कंकाल यहां मिले हैं, वह ऐतिहासिक नंदा राजजात का हिस्सा बनने के लिए पहुंचे थे। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नंदा राजजात यात्रा को गढ़वाल के तत्कालीन नरेश कनकपाल ने आठवीं सदी में दूसरी बार शुरू कराया था। इसका मतलब यह था कि जिस सातवीं सदी के ये नरकंकाल हैं, तब भी नंदा राजजात यात्रा संचालित होती थी। उस समय किसी प्राकृतिक आपदा में बड़ी संख्या में ये लोग मारे गए होंगे और शायद तभी यात्रा पर विराम लगा दिया गया होगा। 

रूपकुंड में अधिक गहराई में दबे नरकंकालों की डीएनए जांच जरूरी

मानव विज्ञान सर्वेक्षण के कार्यालय प्रमुख डॉ. हर्षवर्धन इस बात पर बल देते हैं कि नंदा राजजात यात्रा और नरकंकालों के बीच संबंध के संबंध को पुष्ट करने के लिए कुंड में गहराई में दबे नरकंकालों की डीएनए जांच जरूरी है। इस दिशा में भी जल्द प्रयास शुरू किए जाएंगे।

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मानव विज्ञान सर्वेक्षण ने दुनिया को बताया था रहस्य

वर्ष 1956 में मानव विज्ञान सर्वेक्षण (तब मानवविज्ञान विभाग) के निदेशक रहे आरएस नेगी अपनी टीम के साथ रूपकुंड पहुंचे थे और नरकंकालों के रहस्य को दुनिया को बताया था। हालांकि, पहली बार वर्ष 1942 में वन रक्षक एचके मधवाल ने गश्त के दौरान सबसे पहले नरकंकालों को देखा था। उनकी जानकारी के आधार पर ही करीब 14 साल बाद आरएस नेगी की टीम ने रूपकुंड की तरफ रुख किया। 

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