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जंगल की बात : प्रवासी परिंदों को भाती है उत्तराखंड की सरजमीं

प्रवासी पक्षियों को उत्तराखंड की सरजमीं रास आती है। वर्तमान में सात समंदर पार से इन प्रवासी पक्षियों का आगमन शुरू हो गया है। ये परिंदे आसन कंजर्वेशन रिजर्व झिलमिल झील और विभिन्न वन प्रभागों के जंगल में पहुंचने लगे हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 16 Oct 2021 11:05 AM (IST)Updated: Sat, 16 Oct 2021 11:05 AM (IST)
जंगल की बात : प्रवासी परिंदों को भाती है उत्तराखंड की सरजमीं
आसन कंजर्वेशन रिजर्व में पहुंचे मेहमान परिंदे। जागरण आकाईव

केदार दत्त, देहरादून। सरहद तो इन्सानों के लिए होती है, परिंदों के लिए नहीं। उनके लिए कोई एक देश अथवा प्रदेश नहीं, बल्कि समूची दुनिया घर के समान है। फिर बात उत्तराखंड की हो तो यहां की सरजमीं हमेशा से मेहमान परिंदों को रास आती है। वर्तमान में भी सात समंदर पार से इन मेहमानों के आगमन का क्रम शुरू हो गया है। फिर चाहे वह रामसर साइट में शामिल उत्तराखंड का आसन कंजर्वेशन रिजर्व हो, झिलमिल झील या फिर दूसरे कंजर्वेशन रिजर्व और विभिन्न वन प्रभागों के जंगल, सभी जगह रंग-विरंगे मेहमान परिंदे पहुंचने लगे हैं, जो अगले साल अप्रैल तक यहां बने रहेंगे। जाहिर है कि इनके दीदार के लिए पक्षी प्रेमी भी पहुंचेंगे। आसन कंजर्वेशन रिजर्व में तो बड़ी संख्या में लोग मेहमान परिंदों को देखने जुटते हैं। साफ है कि विदेश से आने वाले ये मेहमान कुछ समय यहां बिताकर आर्थिकी को संवारने में भी मददगार साबित होते हैं।

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इस मर्तबा नियंत्रण में रहेगी जंगल की आग

मानस न की विदाई के साथ ही उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाने की चिंता सालने लगी है। राज्य में हर साल ही अग्निकाल, यानी 15 फरवरी से मानसून आने तक की अवधि में जंगल धधकते हैं, लेकिन अब परिस्थितियां बदली हैं। जंगल किसी भी सीजन में धधक जा रहे हैं। पिछले साल तो अक्टूबर से ही जंगल सुलगने लगे थे। ऐसे में सरकार ने वनों की सुरक्षा के मद्देनजर पूरे साल को अग्निकाल घोषित किया। यानी, वनों को आग से बचाने के लिए हर वक्त चौकस रहना होगा। अच्छी बात ये कि वन विभाग ने पिछले साल की घटनाओं से सबक लेकर तैयारियां शुरू कर दी हैं। इस कड़ी में आग पर नियंत्रण में सबसे अधिक कारगर फायर लाइनों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। केंद्र ने भी इसके लिए करीब ढाई करोड़ की राशि दे दी है। ऐसे उम्मीद जगी है कि इस मर्तबा आग नियंत्रण में रहेगी।

ईको टूरिज्म को और बढ़ावा देने की जरूरत

प्रतिवर्ष तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की पर्यावरणीय सेवाएं देने वाला उत्तराखंड समृद्ध जैव विविधता की पहचान भी रखता है। अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों के साथ ही उच्च कोटि के साल, देवदार, फर, बांज आदि के घने जंगल यहां हैं तो बाघ, हाथी, भालू समेत वन्यजीवों की कई प्रजातियां भी। परिंदों का ये पसंदीदा स्थल है। यह सब स्थानीय समुदाय की वन एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। हर साल ही उत्तराखंड की जैव और वन्यजीव विविधता का दीदार करने देश-विदेश से सैलानी यहां पहुंचते हैं। बदली परिस्थितियों में इस मुहिम में थोड़ा बदलाव करते हुए ईको टूरिज्म यानी प्रकृति से बगैर छेड़छाड़ वाली पर्यटन गतिविधियों को और अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इससे स्थानीय समुदाय के लिए रोजगार के अवसर सृजित होंगे तो उनकी प्रकृति के संरक्षण में भागीदारी बढ़ेगी। इसके अलावा यहां आने वाले सैलानी भी प्रकृति के संरक्षण का संदेश लेकर जाएंगे।

बीएमसी को आखिर कब मिलेगा उनका जायज हक

बेजोड़ जैव विविधता वाला उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल है, जहां जैव विविधता अधिनियम लागू है। इसकेतहत जैव संसाधनों के संरक्षण को शहरी व ग्रामीण निकायों में गठित की गई हैं जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी), लेकिन उन्हें उनका हक नहीं मिल पा रहा। अधिनियम में प्रविधान है कि जैव संसाधनों का वाणिज्यिक उपयोग करने वाली कंपनियां, संस्थाएं, व्यक्ति अपने वार्षिक लाभांश में से 0.5 से तीन फीसद तक की हिस्सेदारी संबंधित बीएमसी को देंगे। तमाम कंपनियां यह हिस्सेदारी जैव विविधता बोर्ड के पास जमा कराती आ रही हैं, लेकिन यह बीएमसी को अभी तक वितरित नहीं हो पाई है। बोर्ड इसके वितरण के लिए प्रभावी पैमाना अब तक निर्धारित नहीं कर पाया है। ऐसे में बीएमसी अपने जायज हक से वंचित हैं। बीएमसी का मनोबल बना रहे और जैव संसाधनों के संरक्षण की मुहिम मंद न पड़े, इसके लिए जल्द से जल्द बीएमसी को उनका हक दिया जाना चाहिए।

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