उत्तराखंड की एक अनसुनी परंपरा, इस त्यौहार में कटता है बकरा, दिल पर होता है मामा का हक
उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र में एक महीने तक चलने वाला माघ मरोज पर्व बेहद ही खास है। ये पर्व मेहमान नवाजी के लिए मशहूर है।
चंदराम राजगुरु, त्यूणी। जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर की सभी 39 खतों में इन दिनों नौ जनवरी से माघ-मरोज त्योहार परपंरागत तरीके से मनाया जा रहा है। एक माह तक चलने वाले इस त्योहार में घर-घर में मेहमान नवाजी का दौर चलेगा। इसमें रिश्तेदारों की खूब खातिरदारी की जाती है। खुशहाली और सामाजिक समरसता के प्रतीक माघ-मरोज त्योहार मनाने के पीछे किरमिर राक्षस के आंतक से जुड़ी घटना बताई जाती है। राक्षस का खात्मा होने की खुशी में क्षेत्रीय लोग हर साल सुडौल बकरे काटकर एक माह तक लोक-नृत्य के जश्न डूबे रहते हैं। साथ ही उस बकरे के दिल पर सिर्फ मामा का हक होता है। इस बार नौ फरवरी की रात को त्योहार के जश्न को विराम दिया जाएगा।
देश-दुनिया में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए विख्यात जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में तीज-त्योहार के जश्न मनाने का तरीका सबसे अलग और परंपरागत है। समूचे क्षेत्र में लोग महासू देवता को कुल आराध्य देव के रूप में पूजते हैं। जौनसार-बावर में हर साल पौष मास में 26 तारीख को हनोल स्थित कयलू महाराज के मंदिर में चुराच का पहला बकरा कटा जाता है। इसके बाद माघ-मरोज त्योहार का जश्न समूचे इलाके में एक माह तक चलता है। ये है त्योहार के पीछे की कहानी
यह त्योहार मनाने के पीछे किरमिर राक्षस के आंतक से जुड़ी कहानी बताई जाती है। क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो सैकड़ों वर्ष पहले जौनसार-बावर और हिमाचल सीमा के बीच बहने वाली टोंस नदी को पहले कर्मनाशा नदी कहते थे। जिसका नाम बाद में टौंस पड़ा। कहा जाता है कि सैकड़ों साल पहले कर्मनाशा नदी में किरमिर नामक राक्षक का वास हुआ करता था। समूचे इलाके में इस राक्षस का जबरदस्त आंतक था।
नरभक्षी कहे जाने वाले किरमिर राक्षस को हर दिन एक मानव बलि अनिवार्य रूप से चाहिए होती थी। मानव कल्याण के लिए मैंद्रथ निवासी हुणाभाट नामक व्यक्ति ने कुल्लू-कश्मीर के सरोवर ताल के पास कठोर तपस्या कर चार भाई(बाशिक, बोठा, पवासी व चालदा) महासू देवता को हनोल-मैंद्रथ थान में लाए। मान्यता है 26 तारीख को पौष मास की रात महासू देवता के सबसे पराक्रमी वीर यानि सेनापति कयलू महाराज ने किरमिर राक्षस का वध किया था। राक्षस का खात्मा होने की सूचना से समूचे इलाके में खुशी की लहर दौड़ पड़ी और लोगों ने घर-घर बकरे काटकर जश्न मनाया। कहते हैं तभी से क्षेत्रवासी हर साल पौष मास में माघ-मरोज का जश्न पूरे एक माह तक परपंरागत अंदाज में नाच-गाने के साथ मनाते हैं।
बकरे के दिल पर मामा का हक
माघ-मरोज में काटे गए बकरे के दिल पर सिर्फ मामा का हक होता है। जौनसार में मेहमाननवाजी में मामा का स्थान सबसे ऊपर है। परिवार के लोग ससुराल में ब्याही बेटी का हिस्सा लेकर उसके घर भी जाते हैं। जिससे बेटी का जुड़ाव मायके से हमेशा बना रहे। बेटी का हिस्सा ससुराल में नहीं पहुंचाने से रिश्तेदारी टूट जाती है।
नौकरीपेशा लोग भी आते हैं घर
माघ-मरोज का जश्न मनाने के लिए घर से बाहर गए सभी नौकरीपेशा लोग भी पैतृक गांव आते हैं। इन दिनों समूचे इलाके में माघ-मरोज का जश्न चल रहा है। जिसमें सभी लोग शरीक होकर ढ़ोल-दमोऊ के साथ नाचते-गाते हैं।
क्या कहते हैं बड़े-बुजुर्ग
जहां-जहां भी महासू देवता की मान्यता है वहां सभी लोग हर साल माघ-मरोज त्योहार का जश्न परंपरागत अंदाज में मनाते हैं। पहाड़ में पौष-माघ मास को ठंड बहुत ज्यादा पड़ती है। माघ-मरोज महोत्सव किरमिर राक्षस के खात्मे से जुड़ी घटना और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति का परिचायक है। प्रेमचंद शर्मा, पूर्व प्रधान अटाल एवं प्रगतिशील किसान।
महासू मंदिर हनोल व सचिव मंदिर समिति के कुल पुरोहित मोहन लाल सेमवाल बताते हैं कि हमारे पूर्वज हुणाभाट ने मानव कल्याण की रक्षा को सेकड़ों वर्ष पहले कुल्लू कश्मीर के सरोवर ताल के पास कठोर तपस्या कर श्री बाशिक, बोठा, पवासी व चालदा चारों भाई महासू देवता को मैंद्रथ-हनोल थान में लाए थे। महासू देवता ने किरमिर राक्षस के आंतक से समूचे इलाके को मुक्ति दिलाई। तभी से लोग खुशी में माघ-मरोज त्योहार मनाते चले आ रहे हैं।
बुरास्वा चकराता निवासी पूरचंद रावत कहते हैं कि ये त्योहार क्षेत्र की खुशहाली और सामाजिक समरसता का प्रतीक है। पहाड़ी इलाकों में ठंड पड़ने से खेतीबाड़ी के कामकाज से लोगों को आराम मिलने और किरमिर राक्षस के आंतक से छुटकारा पाने से माघ में घर-घर दावत व लोक नृत्य का दौर चलता है। लोग इस त्योहार को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। जिसमें बच्चे, युवा, बड़े-बुजुर्ग व महिलाएं सभी साथ मिलकर जश्न मानते हैं।
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