इनके लिए लोकतंत्र के महापर्व में भी भारी पड़ जाती है पेट की आग
लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व यानी की चुनाव। चुनाव में भी वोट न डालने का मलाल। कारण कि उनके पेट की आग के आगे ऐसे लोग इस महापर्व में शामिल होने में हार जाते हैं।
देहरादून, अंकुर अग्रवाल। लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व यानी की चुनाव। चुनाव में भी वोट न डालने का मलाल। कारण कि उनके पेट की आग के आगे ऐसे लोग इस महापर्व में शामिल होने में हार जाते हैं। ये स्थिति है दूसरे स्थानों से आकर दिहाड़ी करने वाले मजदूरों की।
इन मजदूरों से बात की तो यही जवाबज मिला- साहब.. आप बोल रहे कि वोट देना जरूरी है। ये हमारा कर्तव्य है, लेकिन आप ही बताओ कि अगर वोट देने जाऊंगा तो शाम को बीबी-बच्चों का पेट कैसे भर पाऊंगा। मेरा तो नाम वैसे भी सैकड़ों मील दूर गांव में है, जहां पहुंचने में समय व पैसे भी खर्च होते हैं।
ये मजदूर यहां भी चुप नहीं होते और बोलते हैं-इससे अच्छा तो है कि वोट ही नहीं दूं। नेताजी वैसे भी जीतने के बाद मेरे कोई काम नहीं आने वाले। मेरे लिए तो हर दिन एक जैसा है। दिहाड़ी पर जाऊंगा तो रात में खाना बनेगा, नहीं गया तो परिवार भूखा ही सोयेगा। मतदान के लिए घंटाघर पर दिहाड़ी पर जाने का इंतजार कर रहे मजदूरों ने कुछ इस तरह अपनी बेचारगी जाहिर की।
दून की हृदयस्थली घंटाघर और इसके आसपास में दिहाड़ी मजदूरी की आस में पहुंचे लोगों से उनके मताधिकार के बारे में पूछने पर उनका यह दर्द फूट पड़ा। निर्वाचन आयोग ने मतदान के प्रति लोगों को जागरूक करने में यूं तो कोई कसर नहीं छोड़ी। बैनर, पोस्टरों और नुक्कड़ नाटकों के जरिए मतदान को लेकर आमजन को जागरूक किया गया। मतदान के प्रति लोगों में जागरूकता भी आई, मगर रोटी का संकट इस उतसव से शायद बड़ा ही होगा।
मजदूरी करके पेट भरने वालों के लिए मतदान ना करना एक मजबूरी सा बन गया, क्योंकि उन्हें पता है कि मतदान करने गए तो एक दिन की मजदूरी मारी जाएगी। शाम को घर का चूल्हा कैसे जलेगा। सभी के चेहरे पर एक सामूहिक सी चिंता स्पष्ट दिख रही थी।
राजमिस्त्री का काम कर रहे विजय आनंद ने बताया कि वह बिहार का मूल निवासी है लेकिन पिछले दस साल से परिवार सहित दून में ही रह रहा है। उसका वोट भी यहीं बन चुका है। सुबह जब वह वोट देने के लिए बूथ पर पहुंचा तो पहले से ही लंबी लाइन लगी हुई थी। यदि लाइन में लगता तो कम से कम दो घंटे का समय लग जाता। ऐसे में दिहाड़ी पर जाने के लिए समय नहीं बचता।
बेलदार केशव कुमार ने बताया कि उसका वोटर लिस्ट में नहीं था। उसने कोशिश की थी मगर मजदूरी पर होने के चलते वोटर कार्ड बनाना संभव नहीं हो पाया। ओमप्रकाश ने बताया कि वोटर कार्ड बना है लेकिन पर्ची नहीं आई। इतना समय भी नहीं था कि वोटर लिस्ट में नाम देखने जाता।
बेलदार कन्हैय्या सिंह ने बताया कि अगर वोट देने जाऊंगा तो बूथ पर कई घंटे लाइन में खड़े होना पड़ेगा। देर हो जाती तो फिर कोई काम नहीं देता। घंटाघर से खाली हाथ ही लौटना पड़ता। ऐसे में आज घर पर चूल्हा नहीं जल पाता। चुक्खुवाला में रहने वाले मधुबनी बिहार निवासी राम प्रकाश ने बताया कि अच्छी सरकार बनाने में सहयोग करना हमारा फर्ज है लेकिन इसके चक्कर में अपना घर थोड़ी भूल जाऊंगा। मेरा और मेरे परिवार का वोट मधुबनी में ही है। वहां परिवार लेकर जाऊंगा तो हजारों रुपये खर्चा कैसे करूंगा। कईं दिन की दिहाड़ी अलग से चली जाएगी।
श्यामू ने बताया कि वोटर लिस्ट में नाम न होने पर उसने बीएलओ के काफी फेरे भी लगाए लेकिन नाम जुड़ नहीं पाया। कुछ ऐसी ही कहानी घंटाघर पर जमा अन्य दिहाड़ी मजदूरों की भी थी।
छुट्टी के साथ मजदूरी मिले तो दे पाएंगे वोट
दिहाड़ी मजदूरों ने कहा कि जिस तरह से मतदान करने के लिए सरकारी और प्राइवेट कर्मचारियों को छुट्टी मिलती है, उसी तरह उन्हें भी छुट्टी मिलनी चाहिए। कर्मचारियों को उस दिन का वेतन नहीं कटता। ऐसे ही मजदूरों को भी सरकार की तरफ से दिहाड़ी मिल जाए तो वे भी मतदान का प्रयोग पूरी शिद्दत से कर सकते हैं।
यह भी पढ़ें: लोकसभा चुनाव: मतदाता ने दिया फैसला, असमंजस में सियासतदां
चुनाव की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें
यह भी पढ़ें: Loksabha Election 2019: उत्तराखंड में कमल और हाथ में सीधी टक्कर