world cancer day: कैंसर से जंग जीत औरों को दी उम्मीद, दून में ही कई लोग बन गए मिसाल
कैंसर की बीमारी होने के बाद आम आदमी यही महसूस करता है कि मानो अब जिंदगी खत्म हो गई। लेकिन ऐसा है नहीं। अगर हौंसले बुलंद हो तो इसे हराया जा सकता है।
देहरादून, सुकांत ममगाईं। कैंसर, तीन अक्षरों का यह शब्द बेहद डरावना है। इससे परिवार बिखर जाते हैं। कर्ज में डूब जाते हैं। आर्थिक संकट से उबर नहीं पाते। यह बीमारी होने के बाद आम आदमी यही महसूस करता है कि मानो अब जिंदगी खत्म हो गई। लेकिन, ऐसा है नहीं। अगर हौंसले बुलंद हों और मन में जज्बा हो तो इसे हराया जा सकता है। बहुत से लोग हैं, जिन्होंने समय पर उपचार कराया और कैंसर से जंग जीत ली।
कैंसर से जूझकर बने बेजुबानों के मसीहा
वन विभाग की रेस्क्यू टीम के हेड रवि जोशी कैंसर से जंग जीत औरों के लिए भी मिसाल बन गए हैं। वह कभी सांप, कभी बंदर, कभी गुलदार तो कभी मुसीबत में फंसे परिंदों को रेस्क्यू कर वापस उनकी दुनिया में भेजने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं। रवि ने कभी पान, तंबाकू, गुटखा आदि नहीं खाया, लेकिन फिर भी उन्हें मुंह का कैंसर हो गया।
एक बार सर्जरी से कैंसर ठीक हो गया था। लेकिन, कुछ माह में फिर पनप गया। मगर उन्होंने जिंदगी से हार नहीं मानी और दोबारा सर्जरी करवाई। अब वह धीरे-धीरे इस दर्द से उबर रहे हैं। यहां बता दें कि कैंसर के बाद भी रवि खुलकर जिये और अपने काम के साथ कभी समझौता नहीं किया। उन्हें बेजुबान जानवरों से इतना लगाव है कि दिन हो या रात उनकी मदद के लिए पहुंच जाते हैं। दून ही नहीं आसपास के इलाके में भी लोग रवि को सांप पकडऩे वाले भैया के नाम से जानते हैं। हर वर्ष रवि सैकड़ों बेजुबान और खतरनाक जानवरों को रेस्क्यू कर जंगल में छोड़ते हैं।
जीने की प्रेरणा देती हैं गीता गैरोला
उत्तराखंड की जानी-मानी एक्टिविस्ट और लेखिका गीता गैरोला कैंसर से जूझते लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई हैं। जीवन के प्रति उनकी जिजीविषा को देख कोई कह नहीं सकता कि कुछ वक्त पहले ही उन्होंने कैंसर जैसी घातक बीमारी को मात दी है। उन्हें शिकायत सिर्फ यह है कि उत्तराखंड में सरकारी स्तर पर कैंसर के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहती हैं कि निजी अस्पतालों में भी कैंसर के इलाज की बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है, यहां के लोगों को इलाज के लिए दिल्ली, चंडीगढ़ या मुंबई जाना पड़ता है।
गीता 80 के दशक से लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिख रही हैं। करीब चार साल पहले उन्हें पता चला कि वह कैंसर जैसी बीमारी की चपेट में हैं। इसके बावजूद वह घबराई नहीं। वह कहती हैं कि एक साल इस बीमारी के इलाज और एक साल इसके साइड इफेक्ट झेलते निकला। जिसने उन्हें शारीरिक रूप से पूरी तरह तोड़ दिया था। पर वह मानसिक रूप से मजबूत थीं।
यही वजह है कि कैंसर को मात देकर अब वह जन आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। दून में होने वाला शायद ही कोई जन आंदोलन हो, जिसमें गीता गैरोला की भागीदारी न होती है। महिलाओं के मुद्दों को लेकर भी वह सक्रिय रहती हैं। गीता कहती हैं कि कैंसर होने पर डरने या घबराने के बजाय मजबूती से इसका सामना किया जाना चाहिए। हालांकि, वह यह भी कहती हैं कि सरकारों को चाहिए कि कैंसर के मरीजों के लिए सस्ते इलाज की व्यवस्था करें। कैंसर के इलाज में काफी पैसा खर्च होता है। खासकर पहाड़ों में ज्यादातर लोग, इस स्थिति में नहीं होते कि कैंसर का इलाज करवा सकें।
छिन गई जुबान, होठों पर फिर भी जिंदगी के नगमे
जिंदादिली है तो जिंदगी है। जिस कैंसर का नाम सुनते ही लोगों की आधी जान निकल जाती है, उसे ओएनजीसी के मैटीरियल मैनेजमेंट के सुप्रीटेंडेंट संदीप गोयल ने आखिरी स्टेज में भी मात दे डाली। उनकी जिंदादिली को सलाम भी है, क्योंकि आज भी उनके होठों पर जिंदगी के नगमे तारी रहते हैं। वर्ष 2011 से पहले संदीप ओएनजीसी की शान हुआ करते थे। ओएनजीसी में गायिकी के सभी अवार्ड उनकी झोली में आते थे। फिर एक दिन ऐसा आया, जब पता चला कि उन्हें मुंह का कैंसर है और वह भी आखिरी स्टेज में पहुंच चुका है।
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संगीत के बाद जिस सिगरेट को वह अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा मानते थे, उसी ने उनके जीवन को इस दहलीज पर ला खड़ा किया था। पांच साल तक चले इलाज और कई स्तर की सर्जरी के बाद संदीप ने कैंसर को हरा दिया। हालांकि, इसकी कीमत उन्हें अपनी जुबान व जबड़े को खोकर चुकानी पड़ी। लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी। गीत के कई शब्द भले ही साफ न निकल पाते हों, मगर हुनर के बल पर आज भी वह संगीत समारोह में जान फूंक देते हैं।
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