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लोकायुक्त के लिए बढ़ता इंतजार, नौ साल बाद भी वजूद में नहीं आ पाई व्यवस्था

वर्ष 2011 से वर्ष 2018 तक लोकायुक्त में तीन संशोधन किए गए लेकिन लोकायुक्त व्यवस्था अब तक वजूद में नहीं आ पाई है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Fri, 14 Aug 2020 05:07 PM (IST)Updated: Fri, 14 Aug 2020 05:07 PM (IST)
लोकायुक्त के लिए बढ़ता इंतजार, नौ साल बाद भी वजूद में नहीं आ पाई व्यवस्था
लोकायुक्त के लिए बढ़ता इंतजार, नौ साल बाद भी वजूद में नहीं आ पाई व्यवस्था

देहरादून, विकास गुसाईं। भ्रष्टाचार पर मंत्रियों से लेकर अफसरों तक की लगाम कसने को लोकायुक्त की नियुक्ति का सपना। नौ वर्ष पहले इसने मूर्त रूप लेना शुरू किया। वर्ष 2011 से वर्ष 2018 तक, इसमें तीन संशोधन किए गए, लेकिन लोकायुक्त व्यवस्था अब तक वजूद में नहीं आ पाई है। लोकायुक्त की नियुक्ति की शुरुआत वर्ष 2011 में भाजपा की तत्कालीन खंडूड़ी सरकार ने की।

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विधानसभा में उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम पारित किया गया। सत्ता बदलते ही कांग्रेस सरकार ने इसमें संशोधन किया, जिसमें 180 दिन में लोकायुक्त के गठन के प्रविधान को खत्म कर दिया गया। भाजपा दोबारा सत्ता में आई, तो उसने अधिनियम में फिर संशोधन किया। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस नीति के वादे के साथ आई सरकार के इस कदम से उम्मीद जगी कि जल्द लोकायुक्त अस्तित्व में आएगा। अफसोस, अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है। यह स्थिति तब है, जब विपक्ष भी इस पर अपनी सहमति दे चुका है।

बेनामी संपत्ति को कठोर कानून

भ्रष्टाचार पर फंदा कसने का एक और कदम। भ्रष्ट व्यक्तियों द्वारा गलत तरीके से अर्जित की गई बेनामी संपत्ति को जब्त करने के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने कानून बनाने का निर्णय लिया। तब कहा गया कि कांग्रेस में टूट के बाद दबाव डालने के लिए यह बात कही गई, लेकिन इस पर आगे कुछ हुआ नहीं। वर्ष 2019 में मौजूदा भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने के लिए इस कानून को वजूद में लाने की बात कही। कहा गया कि जब्त बेनामी संपत्ति का उपयोग स्कूल, अस्पताल व सामुदायिक भवन आदि बनाने के लिए किया जाएगा। केंद्र में वर्ष 2006 में बनाए गए बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम के हिसाब से प्रदेश में भी कानून बनेगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के रुख को देखते हुए उम्मीद भी बंधी। अब इस घोषणा को एक वर्ष पूरा होने वाला है। अभी तक अधिनियम का खाका नहीं खींचा जा सका है।

प्रधानाचार्यों की कमी कब तक

उत्तराखंड धीरे-धीरे शिक्षा के बड़े केंद्र के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। बड़ी संख्या में निजी स्कूल व कॉलेज खुल रहे हैं, जहां देश के कोने-कोने से विद्यार्थी पढऩे आ रहे हैं। उधर, सरकारी विद्यालयों का हाल यह है कि इंटरमीडिएट कॉलेजों में प्रधानाचार्यों के पद बड़ी संख्या में खाली चल रहे हैं। सरकार ने तदर्थ पदोन्नति देकर कमी को पूरा करने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो पाई। फिर वर्ष 2018 में सरकार ने प्रधानाचार्यों के आधे पद सीधी भर्ती से भरने का निर्णय लिया। कहा गया कि शेष पद विभागीय पदोन्नति के जरिये ही भरे जाएंगे। शिक्षकों ने इस निर्णय का जमकर विरोध किया। बावजूद इसके सरकार ने इसका एक प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेज दिया। तब से ही कार्मिक विभाग में यह प्रस्ताव लंबित पड़ा हुआ है। नतीजतन, प्रदेश में आज भी व्यवस्था के तौर पर ही इंटरमीडिएट कॉलेजों में प्रधानाचार्य तैनात हैं।

कब सशक्त होंगी सहकारी समितियां

सहकारिता की रीढ़ कही जाने वाली सहकारी समितियों को सशक्त करने का इंतजार अब लंबा होता जा रहा है। प्रदेश में बहुद्देश्यीय सहकारी समितियों की संख्या 759 है। इनमें तमाम घाटे में चल रही हैं। राज्य सरकार ने इन समितियों के सशक्तीकरण के मद्देनजर उन्हेंं पर्वतीय क्षेत्रों में पेट्रोल पंप और रसोई गैस एजेंसियों के संचालन का जिम्मा सौंपने का निर्णय लिया।

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वर्ष 2018 में पेट्रोलियम मंत्रालय ने इस पर सैद्धांतिक सहमति जताई, तो प्रदेश में सौ समितियों को पेट्रोल पंप और इतनी ही समितियों को गैस एजेंसी देने की कवायद शुरू की गई। इससे उम्मीद जगी कि अब इन समितियों के दिन बहुरेंगे। इस कड़ी में 40 प्रस्ताव तैयार कर पेट्रोलियम मंत्रालय को भेज दिए गए। झटका तब लगा, जब केंद्र से निर्देश आए कि पेट्रोल पंप और गैस एजेंसियों के संबंध में नई गाइडलाइन जारी की जाने वाली है। तब से नई गाइडलाइन का इंतजार चल रहा है।

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