यहां रहें या वहां, हरक को नहीं पड़ता फर्क
कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामने वाले कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत ने अगला विधानसभा चुनाव न लड़ने का एलान कर सूबे की सियासत में हलचल पैदा कर दी है। अविभाजित उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार में वे सबसे कम उम्र के मंत्री रहे।
देहरादून, विकास धूलिया। साढ़े चार साल पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामने वाले कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत ने अगला विधानसभा चुनाव न लड़ने का एलान कर सूबे की सियासत में हलचल पैदा कर दी है। अविभाजित उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार में सबसे कम उम्र के मंत्री रहे हरक के सियासी सफर को जानने वालों को हालांकि शायद इससे बहुत ज्यादा अचरज नहीं हुआ होगा। सियासत में 31 साल लंबा वक्त गुजार चुके रावत ने भाजपा से ही शुरुआत की थी और अब भी वह भाजपा में ही हैं। यह बात दीगर है कि इस बीच वह बहुजन समाज पार्टी के हाथी की सवारी करने के बाद कांग्रेस का हाथ भी थामे रहे। यही नहीं, वह ऐसे अकेले सियासतदां हैं, जो उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद न सिर्फ तीन सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे, बल्कि बतौर नेता प्रतिपक्ष भी उन्होंने पांच साल अहम भूमिका निभाई।
श्रीनगर (गढ़वाल) में छात्र जीवन से ही राजनीति में उतरे हरक सिंह रावत ने वर्ष 1989 में पौड़ी सीट से भाजपा प्रत्याशी के रूप में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन जीत दर्ज नहीं कर पाए। इसके बाद वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में वह पौड़ी सीट से ही चुनाव जीत कर पहली बार विधायक बने। तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने उन्हें पर्यटन राज्य मंत्री का जिम्मा सौंपा। तब हरक सिंह रावत उत्तर प्रदेश सरकार में सबसे युवा मंत्री थे। वर्ष 1993 का विधानसभा चुनाव भी उन्होंने पौड़ी विधानसभा सीट से जीता। तीन साल बाद वर्ष 1996 में भाजपा में अंदरूनी मतभेदों के कारण उन्होंने पार्टी को अलविदा कह दिया।
भाजपा से नाता तोड़ने के बाद हरक बसपा में शामिल हो गए। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ पर्वतीय विकास परिषद में उपाध्यक्ष का पद सौंपा। इस पद पर वह केवल एक महीने रहे। इसके बाद मायावती ने उन्हें कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड और महिला और बाल विकास बोर्ड का अध्यक्ष बनाया। बसपा संगठन में भी हरक सिंह रावत को मायावती ने अहम जिम्मेदारी सौंपी। रावत उत्तर प्रदेश बसपा के महामंत्री के साथ ही उत्तराखंड इकाई के अध्यक्ष भी रहे।
इसके अलावा बसपा के टिकट पर वह वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में पौड़ी गढ़वाल सीट से मैदान में उतरे। हालांकि हरक यह चुनाव जीत तो नहीं पाए, क्योंकि बसपा का पर्वतीय क्षेत्र में कोई जनाधार नहीं था, लेकिन इसके बावजूद व्यक्तिगत छवि और जाना-पहचाना चेहरा होने के कारण खासे वोट हासिल करने में कामयाब रहे। इसके कुछ समय बाद उनका बसपा से मोह भंग हो गया और वर्ष 1998 में ही उन्होंने कांग्रेस का रुख कर लिया।
उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद वर्ष 2002 में पहले विधानसभा चुनाव में हरक सिंह रावत लैंसडौन सीट से मैदान में उतरे और कामयाबी पाई। नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने और हरक भी उनके कैबिनेट का हिस्सा रहे। इस बीच वर्ष 2003 में एक महिला द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोप के बाद उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि बाद में वह इस आरोप से बरी हो गए। वर्ष 2007 के चुनाव में उन्होंने फिर लैंसडौन सीट पर जीत दर्ज की। बहुमत भाजपा को मिला, लिहाजा सरकार भाजपा की बनी।
राज्य की इस दूसरी निर्वाचित विधानसभा में हरक पूरे पांच साल नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में रहे। वर्ष 2012 के चुनाव में उन्होंने रुद्रप्रयाग सीट को चुना और यहां भी चुनाव जीतने में सफल रहे। पहले विजय बहुगुणा और फिर हरीश रावत के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार में हरक कैबिनेट मंत्री रहे। वर्ष 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत समेत कांग्रेस के नौ विधायकों ने विधानसभा सत्र के दौरान पार्टी से विद्रोह कर हरीश रावत सरकार गिराने की कोशिश की। ये सभी विधायक भाजपा में शामिल हो गए।
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राज्य में कुछ वक्त राष्ट्रपति शासन रहा, लेकिन फिर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद हरीश रावत सरकार बचाने में कामयाब रहे। इन सभी विधायकों की सदस्यता तो गई, लेकिन कांग्रेस इस झटके से उबर नहीं पाई। इसका नतीजा सामने आया वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में, जब 70 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 57 सीट जीत एतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंची और कांग्रेस महज 11 के आंकड़े पर सिमट गई। इस बार हरक ने कोटद्वार सीट से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। मार्च 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में सरकार बनी तो हरक फिर कैबिनेट मंत्री बन गए।