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उतार-चढ़ावों से भरा है महाराष्ट्र की मूसलाधार बारिश से ताशकंद का रहस्यमयी सफर

तुंबाड गांव की मूसलाधार बारिश के बीच शुरू हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल (जेएफएफ) का रहस्यमय सफर ताशंकद में रहस्यों के बीच संपन्न हुआ।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Mon, 02 Sep 2019 05:02 PM (IST)Updated: Tue, 03 Sep 2019 08:10 AM (IST)
उतार-चढ़ावों से भरा है महाराष्ट्र की मूसलाधार बारिश से ताशकंद का रहस्यमयी सफर
उतार-चढ़ावों से भरा है महाराष्ट्र की मूसलाधार बारिश से ताशकंद का रहस्यमयी सफर

देहरादून, दिनेश कुकरेती। महाराष्ट्र के तुंबाड गांव की मूसलाधार बारिश के बीच शुरू हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल (जेएफएफ) का रहस्यमय सफर ताशंकद में रहस्यों के बीच संपन्न हुआ। इस सफर के बीच भी तमाम ऐसे पड़ाव आए, जो कभी दर्शक को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते हैं तो कभी जीवन की सुखद अनुभूतियों के बीच सुकून का अहसास कराते हैं। इन पड़ावों पर चेहरों के भावों को बदलते देखना निश्चित रूप से जीवंतता का प्रतीक है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि धीरे-धीरे ही सही समाज बदलाव की ओर अग्रसर है। वह बेड़ियों में जकड़ा रहना नहीं चाहता, लेकिन सदियों से पैरों में पड़ी ये बेड़ियां काफी मजबूत हैं, जिन्हें तोड़ने के लिए वह खुद को संघर्ष के लिए तैयार कर रहा है। वह जानता है कि कभी-न-कभी इस रात की सुबह जरूर आएगी। 

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'रजनीगंधा' के सहयोग से आयोजित जेएफएफ ने जब 'तुंबाड' गांव की ओर रुख किया तो सवाल भी पीछा करने लगे। लेकिन, 'राम-लखन' ने तमाम संघर्षों के बाद मन को कुछ हल्का किया। हालांकि, यह कल्पनालोक की ही खुशी है, जो व्यवहार में बहुत देर तक चेहरे पर टिकी नहीं रहती। फिर भी इस हकीकत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भागादौड़ी की दुनिया में सुकून के दो पल भी काफी हैं। लेकिन, जब हम युद्धग्रस्त ईराक में बम और गोलों के बीच एक भारतीय परिवार को अपने बेटे 'चिंटू का बर्थडे' मनाते देखते हैं तो लगता है कि खुशियां विपरीत से विपरीत हालात में भी खोजी जा सकती हैं। ठीक है कि भविष्य हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन वर्तमान तो हमारा है, जिसे हम चाहें तो अपने अनुकूल ढाल सकते हैं। उन लोगों की प्रेरणा बन सकते हैं, जो हालात से घबराकर जीवन से हार मान चुके हैं। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुशियां व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से देश में हस्तांतरित होती हैं। फिर चाहे इसके लिए हमें 'बंकर' में ही क्यों न रहना पड़े। यह ठीक है कि सिनेमा युद्ध को भी बेचता है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि युद्ध शांति का भी तो पर्याय है। हमारे जवान अगर 'बंकर' में अपना जीवन गुजार देते हैं तो इसके मायने यह कतई नहीं कि वह सिर्फ युद्ध चाहते हैं। सच तो यह है कि यह कष्ट वह देश में शांति और देशवासियों की खुशहाली के लिए झेल रहे हैं। इस दृष्टि से सिनेमा यदि दर्शकों को युद्ध का हिस्सा बना रहा है तो हमें मान लेना चाहिए कि उसकी मंशा व्यापार से ज्यादा बदलाव की है। 

सिनेमा का यही भाव हमें देशभक्ति से भर देता है। इसी की झलक है 'कर्मा'। लगभग चार दशक पूर्व बनी यह फिल्म जरूर एक सेट फार्मेट पर चलती है, लेकिन इसमें जज्बात हैं, रिश्तों की महक है, राष्ट्रप्रेम है और इस सबसे ऊपर उठकर इंसानियत का रूमानी अहसास। सच में व्यक्ति पैदा होते ही बुरा नहीं बन जाता, बुरा तो उसे हालात बनाते हैं और फिर सुधार का मौका नहीं मिलने पर यही हालात उसके जीवन का नियामक बन जाते हैं। 'नक्काश' में हम यही सब-कुछ तो देखते हैं। आखिर हम कर्म और धर्म को अलग-अलग क्यों नहीं देख पा रहे। 

कर्म ही तो धर्म का मूल आधार है, लेकिन अपनी राजनीति चमकाने वाले जानते हैं कि बहुरंगी गुलदस्ते में दरार डालकर ही वह अपनी मंशा में सफल हो सकते हैं। इसलिए वह धर्म का चोला ओढ़कर समाज में विषवमन करते हैं और इसके लिए अपना हथियार बनाते हैं धर्म के ठेकेदारों और चेतना शून्य तंत्र को। वर्तमान में यही सब तो हो रहा है, जिस 'नक्काश' की हथौड़ी कड़ा प्रहार करती है। 

दुखदायी स्थिति तो यह है कि विद्रूपताएं आज हर क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा चुकी हैं। फिर चाहे वह खेल ही क्यों न हों। शायद इसीलिए हमने हॉकी किंवदंती संदीप सिंह को भुला दिया, जिसने एक 'सूरमा' के जैसे भारतीय हॉकी को बुलंदियों पर पहुंचाया। बावजूद इसके बुरे दिनों में उसके परिवार को अपना घर तक बेचना पड़ा। भारत जैसे देश के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की स्थिति और क्या हो सकती है। जिस खेल ने देश को एक पहचान दी, उसी खेल को अपने अस्तांचल में पहुंचा दिया। 

चलिए! इन्हीं तमाम चिंताओं के बीच उस एतिहासिक 'ताशंकद फाइल' को खोलकर देखते हैं, जिसमें हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत के रहस्य छिपे हुए हैं। याद रखें कि इतिहास हमारे लिए एक ऐसे सबक की तरह है, जो भविष्य की दिशा निर्धारित करता है। जिस भी समाज ने अपने इतिहास से मुंह मोड़ा, वह अपना अस्तित्व भी गंवा बैठा। इतिहास हमें गलतियों से सीखने की प्रेरणा भी देता है और नया इतिहास गढ़ने की भी। 

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बेटियों का ही है यह खुला आसमान 

इस सफर का एक पड़ाव ऐसा भी है, जहां हम बदलते समाज की सुखद अनुभूति कर सकते हैं। इसके लिए हमें 'गल्र्स हॉस्टल' चलना होगा, जहां बेटियों की अपनी एक अलग ही दुनिया है। यहां खट्टी-मीठी नोक-झोंक के बीच गहरी-पक्की दोस्ती के रंग भी नजर आते हैं। 'गर्ल्स हॉस्टल' के बहाने निर्देशक ने लड़कियों के मनोभाव उजागर कर यही संदेश देने की कोशिश की है कि बहुत दिनों तक हम बेटियों को खुले आकाश में परवाज भरने से नहीं रोक सकते। 

देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर 

इस सफर में 'आपके आ जाने से', 'द वॉल', 'लेटर्स' और 'मील' जैसी शॉर्ट फिल्मों को नजरंदाज करना भी सही नहीं है। इन फिल्मों को देखकर यही प्रतीत होता है, मानो कह रही हों, 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर'। 

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