Move to Jagran APP

नौ हजार से अधिक ग्लेशियर और मॉनिटरिंग सिर्फ छह की, पढ़िए पूरी खबर

उत्तराखंड व इससे लगे हिमालयी क्षेत्र में नौ हजार से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। इनमें कितनी ग्लेशियर झीलें हैं इसका भी ठीक से आकलन नहीं हो पाया है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा और अब ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही भी ग्लेशियरों की अनदेखी की देन है।

By Sumit KumarEdited By: Published: Fri, 12 Feb 2021 06:40 AM (IST)Updated: Fri, 12 Feb 2021 06:40 AM (IST)
नौ हजार से अधिक ग्लेशियर और मॉनिटरिंग सिर्फ छह की, पढ़िए पूरी खबर
उत्तराखंड व इससे लगे हिमालयी क्षेत्र में नौ हजार से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं।

सुमन सेमवाल, देहरादून: उत्तराखंड व इससे लगे हिमालयी क्षेत्र में नौ हजार से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। इनमें कितनी ग्लेशियर झीलें हैं, इसका भी ठीक से आकलन नहीं हो पाया है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा और अब ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही भी ग्लेशियरों की अनदेखी की देन है। इसके बाद भी सिर्फ छह ग्लेशियरों पर अध्ययन किया जा रहा है और केंद्रीय संस्थान के रूप में यह जिम्मेदारी वाडिया हिमालय भूविज्ञान के पास ही है। यूं तो वाडिया का अध्ययन क्षेत्र देश का समूचा हिमालयी क्षेत्र है, मगर निरंतर अध्ययन सिर्फ उत्तराखंड के पांच व लद्दाख के एक ग्लेशियर पर ही किया जा रहा है।

loksabha election banner

कुछ समय पहले जरूर वाडिया संस्थान ने जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के कुछ ग्लेशियरों की मॉनिटरिंग की तैयारी शुरू की थी, मगर अब यह कवायद भी ठंडे बस्ते में दिख रही है। वजह यह है कि जिस सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट के तहत यह कवायद की जा रही थी, उसे कोरोनाकाल में बंद किया जा चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि प्रदेश में ग्लेशियरों पर अध्ययन के लिए अलग संस्थान खोलने की जो आस सालों से हमारे विज्ञानी पाले बैठे थे, वह भी धूमिल नजर आ रही है।ग्लेशियरों पर अध्ययन का दायरा सिर्फ आपदा प्रबंधन के लिहाज से नहीं बढऩा चाहिए, बल्कि हमारी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए भी इनकी सेहत की निरंतर निगरानी जरूरी है। ग्लेशियरों से ही पूरे देश की प्यास बुझाने वाली गंगा-यमुना और अन्य तमाम नदियां निकलती हैं। सीमांत क्षेत्रों में जो लोग प्रहरियों की भूमिका में जीवनयापन कर रहे हैं, उनके जीवन का आधार भी यही ग्लेशियर हैं। कुल मिलाकर पर्यावरण और मानवजीवन के संरक्षण के लिए ग्लेशियरों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। यह तभी होगा, जब ग्लेशियरों पर अध्ययन का दायरा बढ़ेगा और उसके लिए पृथक रूप से एक ग्लेशियोलॉजी प्रतिष्ठान खोला जाएगा।

इन ग्लेशियरों की ही निरंतर मॉनिटरिंग

उत्तराखंड

  • वर्ष 2003 से (चौराबाड़ी व डुकरानी)
  • वर्ष 2014 से (गंगोत्री, पिंडारी, दूनागिरी, काफनी)

लद्दाख

  • वर्ष 2016 से (पैनिंग-सुला)

इनकी मॉनिटरिंग की थी कवायद

प्रदेश----------------- ग्लेशियर-----------------आकार

हिमाचल ----------------- पंछीनाला ----------------- 4.50 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- कॉन्डस----------------- 311 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- सेंट्रल रिमो----------------- 273 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- एलिंग----------------- 102 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- घंडोगोरो----------------- 91 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- चोगोलिसा----------------- 66 वर्गकिमी

जम्मू कश्मीर----------------- मशबेरम----------------- 30 वर्गकिमी

यह भी पढ़ें- Glacier Burst Threat: चमोली में तबाही की वजह बना हैंगिंग ग्लेशियर, केदारनाथ के पीछे चोटी पर भी हैं ऐसे ही ग्लेशियर

आपदा के बाद सिर्फ विश्लेषण

ग्लेशियरों पर अध्ययन का हमारा दायरा इतना सीमित है कि जब आपदा घटित हो जाती है, तब हमारे विशेषज्ञ सिर्फ उसका विश्लेषण ही कर पाते हैं। कभी यह नहीं हुआ कि ग्लेशियरों के खतरे को हमने पहले भांप लिया हो।

आश्वासन समिति की स्वीकृति का पता नहीं

उत्तराखंड राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (यूकॉस्ट) के महानिदेशक डॉ. राजेंद्र डोभाल कहते हैं कि जब रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री थे, तब दून में अलग से ग्लेशियोलॉजी सेंटर खोलने के लिए आश्वासन समिति ने स्वीकृति दी थी। मसूरी के पास जमीन भी तलाश ली गई थी और एक औपचारिक लोकार्पण भी किया गया था। वक्त के साथ सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया। ग्लेशियर समूची मानवजाति के लिए अहम हैं। यदि अधिक से अधिक ग्लेशियरों की मॉनिटङ्क्षरग की जानी है तो इसके लिए अलग से संस्थान खोलना पड़ेगा।  

किसी संस्थान का हिस्सा बनकर अध्ययन संभव नहीं

वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. बीआर अरोड़ा भी ग्लेशियरों पर अध्ययन के लिए अलग से संस्थान खोलने के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि किसी एक संस्थान में प्रोजेक्ट या यूनिट बनाकर इतना बड़ा काम नहीं हो सकता। ग्लेशियरों के खतरों से आगाह करने के लिए प्रमुख ग्लेशियरों की सप्ताह में एक बार रिमोट सेंसिंग से मॉनिटङ्क्षरग व निश्चित अंतराल पर फील्ड सर्वे जरूरी है।

मैपिंग, मॉनिटरिंग व रिसर्च जरूरी

ग्लेशियरों की सेहत नासाज है और ऐसे में निरंतर निगरानी से ही इनमें आ रहे बदलावों को समय रहते भांपा जा सकता है। यह कहना है कि उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के निदेशक डॉ. एमपीएस बिष्ट का। उनका कहना है कि ग्लेशियरों की उचित ढंग से निगरानी बिना पृथक संस्थान के संभव नहीं है। केदारनाथ आपदा व ऋषिगंगा क्षेत्र की आपदा से सीख लेने की जरूरत है। आपदा के बाद विश्लेषण करने से बेहतर हैं कि बहुत कुछ हम पहले ही पता कर सकें। 

अलग संस्थान बनाना था और प्रोजेक्ट भी बंद कर दिया

हिमनद विशेषज्ञ व वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व विज्ञानी डॉ. डीपी डोभाल कहते हैं कि हम सालों से अलग ग्लेशियोलॉजी सेंटर की उम्मीद पाले बैठे थे। फिर एक दिन अचानक प्रोजेक्ट के रूप में संस्थान में चल रहे ग्लेशियोलॉजी सेंटर को बंद करने की जानकारी मिलती है। यह स्थिति बताती है कि अभी भी ग्लेशियरों की महत्ता व उनसे निकलने वाले खतरों को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई जा रही। प्रकृति बार-बार हमें चेता रही है। यही वक्त है कि हम उसके संकेतों को समझें और सुधार की दिशा में आगे बढ़ें।

यह भी पढ़ें- जलप्रलय पर कयासबाजी का भी दौर, ग्रामीण कह रहे सेना के एक अभियान के दौरान नंदादेवी चोटी पर छूट गई थी रेडियोधर्मी डिवाइस

Uttarakhand Flood Disaster: चमोली हादसे से संबंधित सभी सामग्री पढ़ने के लिए क्लिक करें


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.