Himalay Diwas 2020: हेस्को के संस्थापक डॉ. जोशी बोले, हिमालय बचाने को आगे आएं गैर हिमालयी राज्य
देश के पर्यावरण संरक्षण में हिमालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसे में जरूरी है कि गैर हिमालयी राज्य भी हिमालय बचाने में अपना सक्रिय योगदान दें। ये कहना है डॉ. अनिल जोशी का।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। देश के पर्यावरण संरक्षण में हिमालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यहां से निकलने वाली नदियां देश बड़े हिस्से की भूमि और नागरिकों की सेवा करती हैं। ऐसे में जरूरी है कि गैर हिमालयी राज्य भी हिमालय बचाने में अपना सक्रिय योगदान दें। यह कहना है हिमालयी पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (हेस्को) के संस्थापक पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का। वह यह भी कहते हैं कि सरकारों को हिमालय के संरक्षण के लिए अपनी समझ को और अधिक विकसित करना होगा। हिमालय दिवस के उपलक्ष्य में 'दैनिक जागरण' की डॉ. जोशी से लंबी बातचीत हुई। जानिए इसके मुख्य अंश-
सवाल: मौजूदा परिस्थितियों में हिमालय को किस रूप में देखते हैं।
-कोरोना संकट के चलते इस बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकृति से संदर्भित बड़े सवाल खड़े हुए हैं। दुनियाभर में प्रकृति के साथ जो व्यवहार हुआ, उसे भी एक बड़ा दोष माना गया है कोरोना के जन्म के कारणों में। भारत में ये कहा जाए कि प्रकृति कहां से नियंत्रित होती है तो स्वत: ही हिमालय सामने आता है। हिमालय ही है, जहां से हवा, पानी, मिट्टी व जंगल चलते हैं और आर्थिकी भी इससे जुड़ी है।
सवाल: यदि हिमालय नहीं होता तो..।
-देखिए, वर्तमान परिस्थितियों में ये जरूरी है कि हम ये भी बताएं कि हिमालय नहीं होता तो क्या होता। हिमालय न होता तो सबसे पहले सवाल उन सीमाओं का अवश्य खड़ा होता, जहां हिमालय सुरक्षा कवच के रूप में मौजूद है। जिस तरह से देश में मानसून चलता है, उसमें हिमालय नहीं होता तो हम सूखी, बंजर समतल भूमि की तरह होते। हिमालय ही है जो मानसून को रोकता है और पानी बरसता है। यदि यह नहीं होता तो तापक्रम अनिश्चित रहता। साफ है कि हिमालय प्रकृति के नियंत्रण में मुख्य भूमिका निभाता है।
सवाल: आर्थिक नजरिये से हिमालय की भूमिका क्या है।
-आर्थिक रूप से देखें तो 19 बड़ी नदियां हिमालय से निकलती हैं और करीब नौ हजार ग्लेशियर वहां हैं। ये नदियां देश के 65 प्रतिशत हिस्से की भूमि व नागरिकों की सेवा करती आ रही हैं। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, जैसी क्रांतियां भी सीधे रूप से हिमालय की देन हैं। हिमालय की जड़ी-बूटियां पुरातन काल से महत्वपूर्ण योगदान देती आई हैं। हिमालय का एक बड़ा योगदान जेनेटिक वेल्थ के रूप में है। कई तरह की फसलों की मूल प्रजातियां हिमालय से जुड़ी रहीं। आज तमाम फसलों की शंकर प्रजातियां इनसे ही उगाई गई हैं। हिमालय में प्रभु का वास और इसे अध्यात्म का केंद्र माना गया है। इतने उपकारों के बाद ही देश में हिमालय को सर्वोपरि माना गया है।
सवाल: क्या हिमालय के संरक्षण की जिम्मेदारी केवल हिमालयी राज्यों की ही है।
-यह एक बड़ा सवाल है। हिमालयी राज्यों को हिमालय से 10 प्रतिशत लाभ ही मिल पा रहे, जबकि अन्य राज्यों को 90 प्रतिशत। उत्तराखंड को ही लें तो हमने देश के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अपने 70 प्रतिशत हिस्से को वनों के लिए आरक्षित कर दिया। सूरतेहाल, सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि देश के दूसरे हिस्से हिमालय बचाने की मुहिम से क्यों नहीं जुड़ सकते। यह समय की मांग है कि गैर हिमालयी राज्य भी हिमालय के संरक्षण को पूरी शिद्दत के साथ आगे आएं। वे किस रूप में योगदान दे सकते हैं, ये बड़ी बहस का हिस्सा होना चाहिए। इस बार हिमालय दिवस पर इसी मसले पर मुख्य रूप से मंथन होगा।
प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र में ऐसा क्या हो कि आर्थिकी भी संवरे और पारिस्थितिकी भी।
-आर्थिकी और पारिस्थितिकी के मामले में हमें हिमाचल से सबक लेना चाहिए। ऐसे कार्यों को बढ़ाना होगा, जो स्थानीय संसाधनों पर आधारित हों और रोजगार देने के साथ ही इनका संरक्षण भी हो। ऐसे में पारिस्थितिकीय खेती से जुडऩा होगा। इस कड़ी में फल-पट्टियों को बढ़ावा देना बेहद लाभकारी है। उत्तराखंड के जाखधार समेत अन्य स्थानों पर ऐसे प्रयोग हुए हैं। सरकार को इस दिशा में पहल करनी होगी। इससे प्राकृतिक लाभ भी होगा और आर्थिकी भी सशक्त होगी। जब तक फल पट्टी विकसित होती है, तब तक वहां अन्य फसलें भी उगाई जा सकती हैं।
सवाल: हिमालय के संरक्षण को लेकर सरकारों की भूमिका से संतुष्ट हैं।
-हिमालय के प्रति आमजन का जुड़ाव बढ़ रहा है और इस तरह के जनजागरण सरकारों पर बड़े दबाव के रूप में आगे का रास्ता तैयार करते हैं। मुझे लगता है कि सरकारों ने हिमालय में रुचि दिखाई है। अलबत्ता, हिमालय के संरक्षण को लेकर और बेहतर समझ विकसित करनी होगी। ये तभी संभव है, जब पारिस्थितिकी के रास्ते से ही आर्थिकी के रास्ते ढूंढेंगे, तभी इसमें स्थायित्व आएगा।